कृषि साख या कृषि वित्त वह मुद्रा या पूंजी है जिसे एक किसान या ग्रामीण व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों से अपने कार्य में खर्च, अपने परिवार के खर्च या कुटीर उद्योगों के खर्चे पूरा करने के लिए उधार लेता है ।
कृषि साख का क्या अर्थ है? meaning of agriculture credit in hindi
साथ अंग्रेजी शब्द 'Credit' का अनुवाद है ओर credit शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द क्रेडो (Credo) से हुई है, जिसका अर्थ विश्वास या भरोसा होता है ।
अर्थशास्त्रियों ने साख के विभिन्न अर्थ दिए हैं -
व्यापार में साख अभिप्राय 'ख्याति' (Goodwill) से होता है, वही खाते में साख का अर्थ देनदारी से लिया जाता है और अर्थशास्त्र में साख का अर्थ भविष्य में वस्तु या सेवा के भुगतान करने से होता है । ऋण दाता एवं ऋणी में विश्वास या भरोसा होता है ।
कृषि साख का अर्थ (meaning of agriculture credit in hindi) - अतः कृषि साख का अर्थ उस मुद्रा या पूंजी से होता है जिसे कृषक भविष्य में लौटाने के वायदे पर लेता है चाहे वह पूंजी या मुद्रा फार्म के खर्च के लिए ली गई हो या परिवार के घरेलू खर्चे चलाने के लिए ली गई हो ।
कृषि साख या कृषि वित्त क्या है इसकी परिभाषा लिखिए?
कृषि साख या कृषि वित्त क्या है अर्थ, परिभाषा एवं इसका वर्गीकरण, आवश्यकताएं व समस्याएं लिखिए |
कृषि साख की परिभाषा (defination of agriculture credit in hindi) -
"कृषि साख की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है कि इसका अर्थ निवेश किए गये उस धन की मात्रा से है जो कार्य के विकास व उत्पादकता के निर्वाह के लिए उपलब्ध हो ।"
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कृषि वित्त की परिभाषा (definition of agriculture finance in hindi) -
कृषि वित्त से अभिप्राय: कृषि व्यवसाय में विभिन्न कार्यों को करने के लिए पूंजी की व्यवस्था से है ।
किसानों की इस आवश्यकता के प्रमुख स्रोत है -
( i ) उसकी निजी पूंजी, ( ii ) दूसरी पूंजी वह पूंजी होती है जो उधार ली जाती है, जिसे साख या ऋण कहा जाता है ।कृषि कार्य को पूरा करने के लिए धन उधार लिया जाता है ।
कृषि साख के आवश्यक तत्त्व क्या है? essentials of agriculture credit in hindi
उपरोक्त परिभाषाओं में से साख के तीन आवश्यक तत्त्व प्राप्त होते हैं जिसको स्मरण रखने के लिये अंग्रेजी के शब्द ‘BAT' का प्रयोग किया जाता है ।
'B' से अभिप्रायः Belief (विश्वास), A से Amount (धनराशि), और 'T' से Time (समय) से है ।
1. विश्वास ( Belief ) -
साख के लिये ऋणदाता और ऋणी दोनों को एक दूसरे पर विश्वास रखना आवश्यक है । यदि दोनों को एक - दूसरे पर विश्वास नहीं है तो लेन - देन सम्भव नहीं होता ।
2. मूल्य का हस्तान्तरण ( Transfer of Value ) -
साख के लिये धन का अधिकार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरण होना आवश्यक है ।
3. समय ( Time ) –
साख के लिये आवश्यक है कि रुपया लेने और उसका भुगतान करने के बीच समय का अन्तर हो ।
कृषि साख या कृषि वित्त का वर्गीकरण कीजिए? classification of credit or finance in hindi
अखिल भारतीय ग्रामीण साख परिवेक्षण समिति (all india rural credit committee) ने ग्रामीण साख का कई प्रकार से वर्गीकरण किया है -
- ऋण लेने की आवश्यकतानुसार
- सुरक्षा के आधार पर
- ऋणदाता के अनुसार
- समय के अनुसार
- ऋणी के आधार पर वर्गीकरण
- परिस्थितियों के आधार पर
1. ऋण लेने की आवश्यकतानुसार ( Classification According to the Credit )
ऋण लेने की आवश्यकतानुसार कृषि साख या वित्त का वर्गीकरण -
- उत्पादक ऋण ( Productive Credit )
- अनुत्पादक ऋण ( Unproductive Credit )
( अ ) उत्पादक ऋण ( Productive Credit ) -
इस प्रकार का ऋण फार्म की उत्पादकता में वृद्धि करने के लिये लिया जाता है ।
यह दो प्रकार का होता है -
( i ) प्रत्यक्ष उत्पादक ( Direct Productive ) -
इस प्रकार का ऋण खेती के साधनों में वृद्धि करने के लिये लिया जाता है; जैसे - उन्नतिशील बीज, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाइयाँ, औजारों व नई भूमि खरीदने के लिये लिया जाता है जो प्रमुख रूप से कृषि का उत्पादन बढ़ाता है ।
( ii ) अप्रत्यक्ष उत्पादक ( Indirect Productive ) -
इस प्रकार के ऋण से खेती के उत्पादन में अप्रत्यक्ष रूप से वृद्धि होती है; जैसे - कृषि शिक्षा प्राप्त करने के लिये, कृषि का तकनीकी ज्ञान का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये व कृषि साहित्य का क्रय करने के लिये लिया गया ऋण ।
( ब ) अनुत्पादक ऋण ( Unproductive Credit ) -
यह ऋण घरेलू उपयोग की वस्तुएँ खरीदने के लिये, शादी, गमी, जन्मोत्सव, मृत्यु भोज, मुकदमेबाजी, आभूषणों आदि को खरीदने के लिये लिया जाता है । इस प्रकार के ऋण से खेती के उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं होती ।
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2. सुरक्षा के आधार पर ( Classification on the Basis of Security )
सुरक्षा के आधार पर कृषि साख या वित्त का वर्गीकरण -
- सुरक्षित ( Secured )
- असुरक्षित साख ( Unsecured )
( अ ) सुरक्षित ( Secured ) -
यह ऋण किसानों की चल व अचल सम्पत्ति (fixed and circulating capital) को बन्धक रखकर दिया जाता है । इस प्रकार का ऋण देने में ऋणदाता को कोई जोखिम नहीं होती और इस पर कम ब्याज लिया जाता है ।
यह ऋण चार प्रकार का होता है -
( i ) व्यक्तिगत जमानती या प्रतिभूति ( Credit on Personal Security ) -
इस प्रकार का ऋण या तो ऋण लेने वाले की व्यक्तिगत प्रतिभूति पर या किसी अन्य जिम्मेदार व्यक्ति की प्रतिभूति पर ऋण देने वाली संस्था ऋण देती है । यदि ऋण का भुगतान समय पर नहीं किया जाता है तो जमानती को ही ऋण की अदायगी का उत्तरदायित्व लेना पड़ता है ।
( ii ) अचल सम्पत्ति को बन्धक या गिरवी रखकर ऋण लेना ( Classification on the Basis of Fixed Mortaged Properties ) -
इस प्रकार का ऋण लेने वाले को उसकी अचल सम्पत्ति; जैसे - भूमि, मकान आदि को बन्धक रखकर दिया जाता है । सम्पत्ति ऋण लेने वाले के पास ही रहती है, किन्तु उस पर स्वामित्व ऋण देने वाले व्यक्ति या संस्था का रहता है । ऋण का भुगतान करने से पहले ऋण लेने वाला व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को बन्धक रखी हुई सम्पत्ति को न तो बन्धक रख सकता है और न बेच सकता है ।
( iii ) चल सम्पत्ति को बन्धक रखकर ऋण लेना ( Credit on the Basis of Mortgaged Circulation Capital ) -
इस प्रकार का ऋण लेने वाले व्यक्ति की चल सम्पत्ति; जैसे - पशु, मशीनें, औजर, आभूषण इत्यादि को बन्धक रखकर दिया जाता है ।
( iv ) समर्थक ऋणाधार ( Collateral Security ) -
यह ऋण लेने वाले के नाम के शेयर, प्रमाण - पत्र, बॉण्डस, बीमा पॉलिसी आदि की जमा रसीदों को बन्धक रखकर दिया जाता है ।
( ब ) असुरक्षित साख ( Unsecured ) -
बिना किसी जमानत, प्रतिभूति अथवा बिना कुछ बन्धक रखे जो ऋण लिया या दिया जाता है तथा जिसके भुगतान में अनिश्चितता रहती है, असुरक्षित साख कहलाता है ।
3. ऋणदाता के अनुसार ( On the Basis of Creditors )
ऋणदाताओं के आधार पर ऋण दो प्रकार का होता है -
( i ) संस्थागत ऋण ( Institutional Credit ) -
ये ऋण संस्थाओं द्वारा दिये जाते है; जैसे - सरकार, सहकारी समितियाँ, वाणिज्यिक बैंक व निगम इत्यादि ।
( ii ) गैर संस्थागत ऋण ( Noninstitutional Credit ) -
यह ऋण व्यक्ति विशेष द्वारा दिया जाता है; जैसे - साहूकार, व्यापारी, आढ़तिया, सम्बन्धी इत्यादि ।
4. समय के अनुसार ( Classification on the Basis of Time )
इस प्रकार का वर्गीकरण ही मुख्य है और अन्य प्रकार के वर्गीकरण भी इस प्रकार के अन्तर्गत आते हैं ।
यह तीन प्रकार का होता है -
( i ) अल्पकालीन ऋण ( Short Term Credit ) -
इस प्रकार का ऋण कुछ महीनों के लिये लिया जाता है जिसका प्रयोग खाद, बीज तथा अन्य घरेलू सामान खरीदने के लिये लिया जाता है और फसल काटने के बाद चुका दिया जाता है । यह ऋण 10 महीने से अधिक अवधि का नहीं होता ।
( ii ) मध्यकालीन ऋण ( Medium Term Credit ) –
इस प्रकार का ऋण औजार, पशु तथा मशीनें खरीदने के लिये लिया जाता है । इसकी अवधि 15 महीने से अधिक व 5 वर्ष या इससे कम की होती है ।
( iii ) दीर्घकालीन ऋण ( Long Term Credit ) -
इस प्रकार का ऋण कृषक द्वारा भूमि खरीदने, पम्पिंग सैट, ट्यूबवैल बनाने, पशुओं के लिये मकान बनवाने, गोदाम बनवाने या अन्य किसी प्रकार का मकान बनवाने, ट्रैक्टर खरीदने तथा पुराने ऋणों को चुकाने के लिये लिया जाता है । यह ऋण 15 से 20 वर्ष की अवधि तक चलते हैं ।
5. ऋणी के आधार पर वर्गीकरण ( Classification on the Basis of Borrower ) -
ऋण लेने वाले किसानों के अनुसार ऋण को निम्न प्रकारों में वर्गीकृत किया है -
( अ ) खाद्यान्न उत्पन्न करने वाले कृषक ।
( ब ) पशु - पालन करने वाले कृषक विशेष रूप से दूध उत्पादन करने वाले कृषक ।
( स ) फल सब्जी उत्पादन करने वाले कृषक ।
( द ) कुक्कुट पालन करने वाले कृषक ।
( य ) कुटीर उद्योग वाले कृषक ।
( र ) कृषि सम्बन्धी दूसरे व्यवसाय करने वाले कृषक ।
6. परिस्थितियों के आधार पर ( Classification on the Basis of Circumstances )
( i ) विपत्ति साख ( Distress Credit ) –
विपत्ति जैसे - बाढ़, अकाल, सूखा, अधिक जलप्लाव और टिड्डी दलों के आक्रमण पर जो ऋण दिये जाते हैं उन्हें विपत्ति साख कहते हैं । ये ऋण कृषकों को बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयाँ, पशुओं के लिये चारा इत्यादि खरीदने के लिये दिये जाते हैं ।
( ii ) सामान्य साख ( Normal Credit ) -
ये ऋण सामान्य परिस्थिति में कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये दिये जाते हैं और ये भी बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों आदि के लिये दिये जाते हैं ।
( iii ) विकास साख ( Development Credit ) -
यह साख कृषि के विकास कार्यों जैसे सिंचाई के साधनों का विकास करने के लिये, पम्पिंग सैट व ट्यूबवैल लगाने, कृषि यन्त्र और औजारों को खरीदने विशेष रूप से ट्रैक्टर खरीदने और भूमि का पुनरुद्वार (soil reclamation) आदि के लिये दिये जाते हैं ।
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भारतीय कृषि साख की आवश्यकतायें लिखिए? | credit needs of indian agriculture in hindi
विभिन्न अर्थशास्त्रियों, संस्थाओं व समितियों ने कृषकों की ऋण आवश्यकता का आकलन किया है जो निम्नलिखित है -
1. सर्वप्रथम केन्द्रीय बैंकिंग जाँच समिति ने 1949 में कृषि के लिये 300 से 400 करोड़ रुपये के अल्पकालीन ऋण व 500 करोड़ रुपये के दीर्घकालीन ऋण की आवश्यकता का अनुमान लगाया था ।
2. इसके पश्चात् 1950-51 में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा नियुक्त भारतीय ग्रामीण सर्वेक्षण समिति ने कृषकों के अल्पकालीन मध्यकालीन व दीर्घकालीन ऋण की प्रति वर्ष 750 करोड़ रुपये की आवश्यकता बताई थी ।
3. 1961-62 में अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण - ग्रस्तता एवं निपेक्ष सर्वेक्षण ने कुल पूँजीगत खर्च 626 करोड़ रुपये का आंका था, जिसमें से 33 प्रतिशत ऋण के रूप में प्राप्त किया था ।
4. केन्द्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा 1966-67 में 1003 करोड़ रुपये की ऋण आवश्कयता का अनुमान लगाया था । जिसमें से 735 करोड़ अल्पकालीन, 90 करोड़ रुपये मध्यकालीन व 178 करोड़ रुपये दीर्घकालीन ऋण के थे ।
5. श्री पी० सी० बांसिल ने चौथे पंचवर्षीय 1677 करोड़ रुपये के अल्पकालीन ऋण की आवश्यकता बताई थी ।
6. भारत सरकार के कृषि उत्पादन - मण्डल ने चौथी पंचवर्षीय के लिये 2412 करोड़ रुपये की आवश्यकता का आकलन किया था ।
7. प्रो० एम० एल० दाँतावाली की अध्याक्षता में नियुक्त पैनल ने 1970-71 के लिये 1228 करोड़ व 1341 करोड़ रुपये के अल्पकालीन ऋण की आवश्यकता का अनुमान लगाया था ।
8. अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण पुनर्निरीक्षण समिति ने (1969-74) के लिये 2000 करोड़ के अल्पकालीन ऋण, 500 करोड़ मध्यकालीन ऋण व 1500 करोड़ रुपये के दीर्घकालीन ऋण की आवश्यकता बताई थी ।
9. राष्ट्रीय कृषि आयोग द्वारा 1985 के अन्त तक 16549 करोड़ रुपये की पूँजी की आवश्यकता का अनुमान लगाया था ।
10. डॉ० डी० के० देसाई ने वर्ष 2000 तक पहले विकल्प के अनुसार 49356 करोड़ रुपये और दूसरे विकल्प के अनुसार 60324 करोड़ रुपये के अल्पकालीन ऋण की आवश्यकता का अनुमान लगाया था ।
कृषि साख या कृषि वित्त की क्या समस्याएँ है? problems of agricultural credit in hindi
अखिल भारतीय ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति के अनुसार, “वर्तमान समय में विभिन्न ऐजेन्सियों द्वारा जो कृषि साख प्रदान की जा रही है, वह अपर्याप्त है उचित प्रकार की नहीं है तथा सही समय पर सही व्यक्तियों तक नहीं पहुंच पा रही है ।" इससे यह बात स्पष्ट है कि हमारे देश में कृषि साख (agriculture credit in hindi) समस्या एक महत्त्वपूर्ण समस्या है ।
कृषि वित्त या कृषि साख की निम्न प्रमुख समस्यायें है -
1. उपलब्ध साख सुविधाएँ कृषक की साख सम्बन्धी आवश्यकताओं की तुलना में बहुत कम है ।
2. देश में पिछले कुछ वर्षों में कृषि वित्त के क्षेत्र में संस्थागत ढांचे को तेजी से विकसित किया गया है तथा ग्रामीण स्तर पर सहकारी ऋण समितियाँ, व्यावसायिक बैंक, ग्रामीण बैंक कार्य कर रहे हैं, लेकिन इनके द्वारा प्रदान की जाने वाली वित्तीय सुविधाएँ प्रयाप्त मात्रा में नहीं हैं ।
3. किसानों को अल्पकालीन, मध्यकालीन एवं दीर्घकालीन ऋण के लिये कोई क्रमबद्ध व्यवस्था नहीं है ।
4. कृषि उत्पादन अधिकांशतः प्रकृति पर निर्भर करता है । उत्पादन पर प्राकृतिक आपदाएँ जैसे - सूखा, अतिवर्षा, ओला, पाला, फसलों की बीमारियाँ प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं जिसके कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं और कृषि में अनिश्चितता बनी रहती है । इस बहुत कम है ।अनिश्चितता के कारण ऋण देने वाली संस्थायें कृषकों को ऋण स्वीकृत करने में रूचि नहीं लेती ।
5. कृषि में उत्पादन कार्यों के लिये पूँजी निवेश करने के समय और पूँजी से आमदनी के समय में लम्बा समय होता है । इस समय को कम नहीं किया जा सकता क्योंकि यह जैविक (biological) व्यवसाय है । इस उद्योग में पौधों के बढ़ने तथा पशुओं के बढ़ने में कुछ निश्चित समय की आवश्यकता होती है; जैसे - फसलों के पकने में 5, 6 माह, पशुओं में 4-5 वर्ष, फलों में 8-10 वर्ष का समय लगता है । इतने लम्बे समय के लिये ऋण देने वाली संस्थाएँ तैयार नहीं होती ।
6. कृषि में जोखिम का अनुमान लगाना भी कठिन है । जोखिम होने के कारण किसान को ऋण प्राप्त करने में कठिनाई होती है । कृषि में अधिक जोखिम होने के कारण किसान को कम लाभ होता है । वह कृषि में अधिक पूँजी नहीं लगा सकता । लाभ कम होने के कारण और कभी - कभी फसलों की पूर्ण हानि होने के कारण उसको अधिक ऋण की आवश्यकता होती है । अधिक ऋण देने के लिये ऋण देने वाली संस्थाएँ तैयार नहीं होती क्योंकि उन्हें ऋण की वसूली न होने का डर होता है ।
7. साधारणतया कृषि धन्धा बहुत ही छोटे पैमाने पर विस्तृत क्षेत्र में असंख्य कृषकों द्वारा किया जाता है जिनकी जोतें बहुत छोटी होती हैं । इन कृषकों की आवश्यकता पूर्ण करने व उनसे ऋण वसूली में कठिनाई होती है ।
8. कृषि मौसमी धन्धा है और ऋण की आवश्यकता भी मौसमी होती है । इस प्रकार ऋण की आवश्यकता अल्पकालीन होती है ।
9. कृषकों के पास ऋण लेने के लिये पर्याप्त जमानत (security) का अभाव रहता है ।
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कृषि ऋण प्राप्त करने में होने वाली कठिनाइयाँ? | difficulties getting credit in hindi
किसानों को कृषि ऋण प्राप्त करने में होने वाली प्रमुख कठिनाइयाँ -
- सुरक्षा ( Security )
- लम्बा समय ( Long Time )
- कृषि में दैवी प्रकोप ( Natural Calamities )
- कृषक की उत्पादक तथा अनुत्पादक साख ( Productive and Unproductive Credits )
- ऋण की आवश्यकताओं का अनुमान लगाना ( Total Estimate Difficult )
- कृषि मौसमी धन्या ( Agriculture Seasonal Occupation )
- ऋण वापस करने की क्षमता का न होना ( No Capacity to Return the Loan )
- सरकार की उपेक्षा ( Indifferent Attitude of Government )
- सामाजिक प्रतिष्ठा का कम होना ( Low Social Status )
1. सुरक्षा ( Security ) -
कृषकों के पास उपयुक्त सुरक्षा (security) का अभाव होता है । उसके पास भूमि या जानवर दो ही प्रकार की वस्तुयें सुरक्षा के लिये होती हैं जिनमें से पशु स्थायी रूप से सुरक्षा की वस्तु नहीं है और भूमि के हस्तान्तरण पर सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिये गये हैं ।
2. लम्बा समय ( Long Time ) -
कृषि में पूँजी लगाने व उसका फल प्राप्त करने में अधिक लम्बा समय लगता है । किसान के बीज बोने के कई महीने पश्चात् फसल पक्कर तैयार होती है । इसलिये कृषि में लम्बे समय तक के लिये ऋण की आवश्यकता होती है । ऐसी स्थिति में महाजन अपना धन इतनी अवधि के लिये नहीं देना चाहते ।
3. कृषि में दैवी प्रकोप ( Natural Calamities ) -
जैसे अति वर्षा, सूखा, बाढ़, बीमारियाँ, कीट पतंगों के आक्रमण इत्यादि के कारण अधिक जोखिम रहती है ।
4. कृषक की उत्पादक तथा अनुत्पादक साख ( Productive and Unproductive Credits ) -
इन दोनों में अन्तर इस प्रकार किया जा सकता है । उत्पादक ऋण के साल में अदायगी होने की सम्भावना रहती है परन्तु अनुत्पादक कार्यों के लिये ली गई साख को अदा करना कठिन अथवा असम्भव सा हो जाता है ।
5. ऋण की आवश्यकताओं का अनुमान लगाना ( Total Estimate Difficult ) -
ऋण की आवश्यकता का पूर्ण अनुमान लगाना कठिन होता है और इसकी माँग व पूर्ति में सन्तुलन स्थापित नहीं किया जा सकता ।
6. कृषि मौसमी धन्या ( Agriculture Seasonal Occupation ) -
कृषि मौसमी धन्धा होने के कारण साख की मांग भी मौसमी होती है । ऋणदाता यह समझते हैं कि इस समय कृषक का कार्य विना ऋण लिये नहीं चल सकता । इसलिये वे ऋण ऊँची व्याज दर पर देते हैं ।
7. ऋण वापस करने की क्षमता का न होना ( No Capacity to Return the Loan ) -
किसानों की आमदनी बहुत कम होती है । ये गरीबी की रेखा से नीचे ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं । आमदनी में कठिनता से ही पेट भरते हैं । बचत का तो प्रश्न ही नहीं ठठता ।
8. सरकार की उपेक्षा ( Indifferent Attitude of Government ) -
सरकार भी इन लोगों की उपेक्षा करती है और उनको ऋण दिलाने में सहायता नहीं करती ।
9. सामाजिक प्रतिष्ठा का कम होना ( Low Social Status ) -
सामाजिक प्रतिष्ठा कम होने के कारण बैंक के मैनेजर व दूसरे कर्मचारी इनको ऋण नहीं देते । जन प्रतिनिधि जैसे विधायक (M.L.A.) व दूसरे सामाजिक कर्मचारी भी इनकी कठिनाइयाँ नहीं सुनते व ऋण दिलाने में सहायता नहीं करते ।
इन सभी कारणों से कृषक को पर्याप्त मात्रा में साख नहीं मिल पाती है और यदि मिलती भी है तो अधिक व्याज दर पर ।
कृषि साख का स्वभाव व प्रयोग | nature and use of agriculture credit in hindi
आवास के लिये, मकान व पशुओं के लिये, घर बनवाने, फसल बोने से पककर तैयार होने तक, परिवार के उपभोग के लिये, शादी, व्याह, जन्मोत्सव जैसे सामाजिक दायित्वों एवं मृत्यु भोज की परम्पराओं को निपटाने के लिये ऋण लेना और ऊँची दर का ब्याज भुगतान कर श्रमबन्धक प्रथा की कड़वी बूंट पीकर भी संसारिक एवं लोक मर्यादा के अनुरूप खर्चा करना भारतीय किसान के लिये अनिवार्य होता है । पंचायतों में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये भी उसे अनुत्पादक ऋण लगातार लेते रहने की विवशता है । फिर आसामी, बागवानी खेती में अनिश्चित उत्पादन और निश्चित श्रम चुकाने के लिये ऋण के सिवाय कोई अन्य चारा भी नहीं होता है ।
इसी प्रकार उपभोग की आवश्यकताएँ, सामाजिक प्रतिष्ठा की मर्यादायें, लोक व्यवहार की परम्परा उसे ऋण के लिये बाध्य करती रहती हैं । अकाल, सूखा, ओलावृष्टि, अधिक जलप्लायन व टिड्डी दलों के आक्रमण की मार भी भारतीय किसान पर ऋण भार को बढ़ाते रहने में अपनी भूमिका निरन्तर निभाती रहती है ।
इस प्रकार कृषकों को निर्धनता, अनार्थिक जोतों का बाहुल्य, कृषि पर निरन्तर बढ़ता भार, कुटीर व घरेलू उद्योगों का अभाव, अस्वस्थता, बीमारी, पैतृक ऋण को ईमानदारी से चुकाते रहने की मर्यादायें, कृषक की अशिक्षा, सामाजिक व धार्मिक फिजूलखर्चियाँ, मुकदमेबाजी की आदतें, पशुधन का नुकसान, कृषि व्यवहार की कटौतियाँ, कृषक परिवार ऋण को निरन्तर बढ़ाती जाती हैं और इन सबके दूषित प्रभाव के कारण हमारी कृषि जड़ हो गई है । उसमें समृद्धि के कहीं दर्शन नहीं होते ।
फलतः ग्रामीण ऋण आज भारतीय को उसी प्रकार सहारा दिये हुए है जिस प्रकार कि जल्लाद का रस्सा फाँसी की सजा पाए आदमी का एकमात्र अन्तिम सहारा होता है ।
कृषकों को कृषि ऋण की आवश्यकता | need of credit for farmers in hindi
जिस तरह बड़े - बड़े उद्योगों के लिये धन की आवश्यकता होती है, उसी तरह कृषि के चलाने के लिये भी धन की आवश्यकता होती है ।
एफ० निकलसन के अनुसार, “रोम से स्काटलैण्ड तक का कृषि इतिहास इस बात का साक्षी है कि कृषि के लिये ऋण लेना आवश्यक है । देश की परिस्थितियाँ भूमि अधिकार अथवा कृषि की अवस्था इस महान तथ्य को तनिक भी प्रभावित नहीं करती कि कृषक के लिये ऋण लेना आवश्यक है ।"
उन्होंने आगे कहा कि जिन कार्यों के लिये कृषकों को रुपये चाहिये, वे ये हैं — “खेती के चालू खर्चे जैसे - बीज, खाद इत्यादि खरीदने के लिये बैल, औजार तथा कच्चा माल खरीदने के लिये, नई भूमि प्राप्त करने के लिये, सींचने , निराने और रोपण के लिये, पुनः ऋण अदा करने के लिये, मकान बनवाने के लिये, खाद्यान्न तथा अन्य उपयोगी सामग्री खरीदने के लिये, सरकार को मालगुजारी देने के लिये, परिवार की शादी, गमी के खर्चे के लिये, आभूषण के लिये तथा मुकदमेबाजी लिये ।
इन विभिन्न प्रकार के मदों को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँट सकते हैं । प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक, जिसमें खेती के चालू खर्चे जैसे - बीज, खाद इत्यादि खरीदने, पशु खरीदने, नई भूमि खरीदने आदि व्यय शामिल हैं ।
दूसरे अप्रत्यक्ष रूप से उत्पादक जिनमें पुराना करने, शिक्षा के लिये, खाद्यान्न तथा अन्य उपयोगी सामग्री खरीदने, सरकार को मालगुजारी देने आदि में व्यय आते हैं ।
तीसरे प्रकार के अन्य अनुत्पादक खर्चे होते हैं; जैसे - मुकदमेबाजी शादी, गमी तथा आभूषणों आदि के व्यय ।
इस प्रकार से किसान के व्यक्तिगत सीमित साधनों को ध्यान में रखते हुए, पूछा जाए तो खेती की आवश्यकताओं का महत्त्व अपेक्षाकृत अधिक है ।
हमारे देश में परिस्थितिय कुछ ऐसी हो गई हैं कि एक उद्योगपति को पूँजी या धन प्राप्त करने में उतनी कठिनाई नहीं होती, जितनी कि एक किसान को थोड़ा - सा धन प्राप्त करने में होती है । ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ देश की 80 प्रतिशत आबादी उपेक्षित सा जीवन जीती है कृषि ही एकमात्र उनके जीवन का अवलम्ब है । कृषि करने के लिये किसान को खाद, बीज, कृषि यन्त्र, पशु व अन्य साधन खरीदने के लिये, कुँए खुदवाने, मेढ़बन्दी करवाने, बाढ़ नियन्त्रण व कर्ज अदा भूसंरक्षण के लिये, नालियाँ बनवाने के लिये तथा अन्य उत्पादक कार्यों के लिये हर फसल पर ऋण की आवश्यकता होती है ।
कर्ज लेने की प्रथा उतनी पुरानी है जितनी भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था । प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था में व मनुस्मृति में ऋण देने की प्रथा जीवित थी ।