बीज संलवन (हार्वेस्टिंनग) से बीज बोने तक बीज की गुणवत्ता को अनुरक्षित रखने वाली प्रक्रियाओं को बीज संसाधन (seed processing in hindi) कहते है ।
बीज संसाधन क्या है इसकी परिभाषा (defination of seed processing in hindi)
बीज संसाधन की परिभाषा - सस्य संलवन (हार्वेस्ट) के पश्चात् बीज को सुखाना, सफाई करना, श्रेणीकरण, उपाचारित करना एवं भण्डारण इत्यादि प्रमुख क्रियायें होती है, जिनसे बीज एवं खाद्यान्नों को खराब होने से बचाया जा सकता है तथा उनकी ओज, जीवन क्षमता, अंकुरण क्षमता इत्यादि का सफलतापूर्वक अनुरक्षण किया जा सकता है ।
बीज संसाधन क्या होता है एवं इसके विभिन्न चरण कोन से है?
बीज संसाधन क्या है इसके सिद्धांत एवं बीजों का भण्डारण कैसे किया जाता है |
भारत में बीज संसाधन (seed processing in india)
सन् 1960-70 के दशक के मध्य में अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों के प्रचलन से खाद्यान्नों की मंडी में भरमार हो गयी ।
तब ज्ञात हुआ कि हमारी कटाई के बाद की व्यवस्था कितनी अपर्याप्त है । कटाई के बाद खाद्यान्नों के खराब होने से काफी हानि हुई ।
मंडी में अनाजो की कीमतें घटी, जिससे किसानों को फसल का उपयुक्त मूल्य नहीं मिला । खाद्यान्नों में लगभग 10 प्रतिशत तथा फल व सब्जियों में 25-30 प्रतिशत हानि हुई ।
भारतीय अनाज भण्डारण व्यवस्था, हापुड़ एवं केन्द्रीय खाद्य प्रोद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, मैसूर ने कटाई के पश्चात् संसाधन भण्डारण कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया ।
भारतीय खाद्य निगम की स्थापना 1965 में हुई थी ।
खाद्य निगम ने अपना बफर स्टॉक 1974 में 1 करोड़ टन से बढ़ाकर 1982 में दो करोड़ टन किया । भण्डारण के फलस्वरूप खाद्यान्नों की केवल 2 प्रतिशत हानि हुई ।
घरों में जहाँ लगभग 70 प्रतिशत खाद्यान्न भंडारित होता है के लिए सुधरे भण्डारण की विधियाँ विकसित की गयी ।
धान में कटाई से होने वाली हानि को कम करने के लिए और छीजन का उपयोग करने के लिए सुधरी मशीनों और प्राविधियों पर अध्ययन किये गये तथा धान मिलों को आधुनिक बना का प्रयास किया गया ।
धान की भूसी के स्थिरीकरण तथा दाल कूटने की सुधरी तकनीक तैयार की गयी । कटाई के बाद की प्रौद्योगिकी के विकास से सूरजमुखी और सोयाबीन की फसलों के प्रचलन से तेल तथा प्रोटीन की मांग की पूर्ति की सहायता मिली है ।
कृषि में उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों के साथ - साथ संसाधन द्वारा उत्पादों का मान रक्षित रखने की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है ।
खाद्यान्नों के भण्डारण एवं खाद्य संसाधन के महत्व को देखते हुए 1968 में भारतीय अनाज भण्डारण संस्थान और 1950 में केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसन्धान संस्थान की स्थापना की गयी थी ।
भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् ने 1972 में कटाई और कटाई के पश्चात् की प्रौद्योगिकी पर अखिल भारतीय समन्वित प्रायोजन प्रारम्भ की । इसके अन्तर्गत 10 केन्द्र स्थापित हुए ।
भारतीय खाद्य निगम द्वारा भारत सरकार ने अनाज के रख - रखाव तथा बफर स्टॉक तैयार करने को अपने हाथ में लिया ।
बीज संसाधन की बीज की उत्तमता एवं गुणवत्ता अनुरक्षण के लिए विशेष महत्व है ।
बीज ओज, जीवन क्षमता, अंकुरण क्षमता शुद्धता एवं रोगों से सुरक्षा के लिए बीज संसाधन (seed processing in hindi) एवं उसका उपयुक्त भंडारण आवश्यक होता है ।
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बीज संसाधन के सिद्धांत एवं चरण (principals of seed processing in hindi)
बीज संसाधन के निम्नलिखित सिद्धान्त होते है -
- बीज की प्राप्ति ( Receiving Seed )
- अनुकूलन ( Conditioning )
- बीज सुखाना ( Seed Drying )
- बीज सफाई ( Seed Cleaning )
- पृथक्करण व श्रेणीकरण ( Separation and Grading )
- बीज सम्मिश्रण ( Sed Blending )
- बीजोपचार ( Seed Treatment )
- बोराबंदी ( Bagging )
- भंडारण ( Storage )
बीज संसाधन की विधियां (methods of seed processing in hindi)
बीज संसाधन की प्रविधि (procedure of seed processing in hindi) बीज संसाधन की प्रविधि निम्नलिखित है -
( 1 ) बीज प्राप्ति ( Receiving Seed ) -
क्रय किये जाने वाले बीज का सर्वप्रथम प्रयोगशाला परीक्षण कर लिया जाता है । प्राप्त प्रतिदर्शो की बीज की आर्द्रता प्रतिशत की परीक्षा, भौतिक शुद्धता की परीक्षा, जीवन क्षमता की परीक्षा, अंकुरण परीक्षा तथा अन्य आवश्यक परीक्षायें कर ली जाती हैं । स्वीकृत बीज को तोल कर ब्योरेवार रजिस्टर में अंकित कर लिया जाता है ।
( 2 ) अनुकूलन ( Conditioning ) -
बीज को उपयुक्त स्थिति में लाने के लिए अनुकूलन किया जाता है जैसे कि फसल के अन्य मिश्रित अवशेषों का पृथक्करण, दानों को भट्टों से हटाना, फलियों या बालियों में से बीज निकालना, कपास में रेशा हटाना, अण्डी के शुष्क फलों से बीज का पृथक्करण, मूंगफली का फलियों से बीज निकालना ।
इन प्रक्रियाओं से बीज इस योग्य हो जाता है कि उसे उत्थापकों (elevators) और संवाहकों (conveyors) में सरलता से चालित किया जा सकता है तथा वह प्रत्यक्ष बोने की स्थिति में आ जाता है । ये क्रियाये भिन्न - भिन्न फसलों के लिए भिन्न - भिन्न होती है ।
अनुकूलन कार्य के लिए विभिन्न मशीनें उपलब्ध हैं जैसे कि छनाई मशीन स्कैल्पर (scalper), रेशा हटाने की मशीन डिबियर्डर (Debearder), छिलका उतारने की मशीन हुलर (Huller), खुरचने की मशीन स्कैरीफाइर (Scarifier), मक्का का दाना निकालने की मशीन कॉर्न शैलर (Corn sheller) इत्यादि ।
( 3 ) बीज सुखाना ( Seed Drying ) -
बीज आर्द्रता परीक्षण के विश्लेषण में यदि आर्द्रता की मात्रा न्यूनतम भण्डारण के लिए मानक आर्द्रता प्रतिशत से अधिक होती है तब बीज को सुखाना पड़ता है ।
बीज अथवा अन्न में आर्द्रता की मात्रा उसमें उपस्थित जल की वह मात्रा होती है जिसे बीज की रासायनिक रचना में परिवर्तन किये बिना उससे अलग किया जा सकता है ।
भारतीय मानक संस्थान की परिभाषा के अनुसार,
बीज को एक घण्टे तक 133°C ताप पर निरन्तर गर्म करने पर उस भार में होने वाली न्यूनता के बराबर होती है । बीज में 12 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता होने पर कीटों के आक्रमण के लिए संवेदनशील हो जाते हैं जिससे उनमें कीटों में तेजी से वृद्धि होने लगती हैं ।
बीजों में 14 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता होने पर कवकों (fung) का संक्रमण होने लगता है । आर्द्रता की मात्रा 16 प्रतिशत या इससे अधिक होने पर बीज में रासायनिक परिवर्तन होने लगते हैं । इनके फलस्वरूप बीज में हास होने लगता है ।
( 4 ) बीज की सफाई ( Seed Cleaning ) –
हालांकि संलवन की प्रक्रिया में बीज को साफ करने की पूर्ण चेष्टा की जाती है तथापित उसमें खरपतवारों के बीज, अन्य फसलों के बीज तथा अन्य अक्रिय पदार्थ (जैसे कंकड़, अर्गट, भूसा अन्य मृत पदार्थ) रह जाते हैं जिससे बीज की गुणता घटती है तथा संसाधन में अवरोध होता है ।
उपरोक्त प्रकार के अवांछित पदार्थों को बीज से पृथक करने की प्रक्रिया को बीज की सफाई कहते हैं ।
आधुनिक समय में बीजों की सफाई मशीनों द्वारा की जाती हैं । इनमें बीज धानियों ( Seed hopper ) तथा चालनियों ( screens ) का प्रयोग किया जाता है ।
सामान्यत: वायु चालनी मशीन ( Air screen machine ) का प्रयोग करते हैं । भिन्न - भिन्न फसलों के लिए भिन्न - भिन्न आकार - प्रकार की मशीनों का प्रयोग किया जाता है ।
( 5 ) पृथक्करण व श्रेणीकरण ( Separation and grading ) -
शुद्ध बीज के समान आकार के बीजों का पृथक्करण करके श्रेणीकरण किया जाता है । बीज की निश्चित सहिष्णुता सीमाओं के अंतर्गत विभिन्न बीज गुणों के दृष्टिकोण से समरूप हो ।
समरूप बीज ढेर का निर्धारण किया जाता है । इससे बीज अधिक आकर्षक प्रतीत होता है, बोराबंदी सरल होती है तथा सर्वोपरी मशीन से बोआई सुविधाजनक एवं यथार्थ होती है । बीज का मूल्य बढ़ जाता है ।
बीजों का पृथक्करण एवं श्रेणीकरण ग्रेडर (grader) मशीनों द्वारा किया जाता है । इनमें बीज का पृथक्करण बीज के आकार, आकृति, रंग, भार, संगठन इत्यादि के आधार पर किया जाता है ।
प्रत्येक प्रकार के श्रेणीकरण के लिए भिन्न - भिन्न प्रकार की ग्रेडर मशीने उपलब्ध है ।
( 6 ) बीजोपचार ( Seed - treatment ) -
बीज के पृथक्करण एवं श्रेणीकरण के उपरान्त बीज का कीटनाशकों (insecticide) तथा कवकनाशकों से उपचार किया जाता है, जिससे बीज पर कीटों एवं कवकों का संक्रमण न हों ।
( 7 ) बोराबंदी ( Bagging ) -
उपयुक्त बीजोपचार के उपरान्त बीज को यथार्थ आकार के बोरों या थैलों में भरा जाता है । बोरों या थैलो का परिमाण भिन्न - भिन्न फसलों के आधार पर निर्धारित किया जाता है ।
बोरे एवं थैले नये होने चाहिये तथा उनका 3 प्रतिशत डी० डी० टी० से उपचार कर लिया जाना चाहिये ।
बीज भरने के उपरान्त सिलाई कर देनी चाहिये । बोरों या थैलों का लैबल कर दिया जाता है तथा उन पर बीज - प्रमाणीकरण पत्र संलग्न कर दिया जाता है ।
( 8 ) बीज भंडारण ( Seed Storage ) -
बीज को अगली बोआई (sowing) तक रखने के लिए एवं खाद्यान्नों को खाद्य के विक्रय तक भंडारित करने की आवश्यकता होती हैं ।
अच्छे भंडार ग्रह में बीज को नमी, चूहों, कीटों, कवकों इत्यादि से सुरक्षित रखने की व्यवस्था होनी चाहिए ।
इसमें बीज को सरलतापूर्वक निकालने एवं निरीक्षण की सुविधा होनी चाहिए । इसमें तापमान पर नियन्त्रण रखने की व्यवस्था होनी चाहिए तथा यह धूमन या अन्य रासायनिक उपचार के लिए वायुरोधी होना चाहिए ।
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बीज व खाद्यान्नों के सुखाने की विधियां (methods of drying seed and food grains in hindi)
बीज व खाद्यान्नों को सुखाना (Drying of seed and food grains) भारत जैसे उष्ण कटिबंधीय देशों (Tropical countries) में अधिक आर्द्रता के परिणामस्वरूप बीजों व खाद्यान्नों के खराब होने का खतरा सतत् रूप से बना रहता है ।
संलवन (harvesting) के तुरन्त पश्चात् बीज में आर्द्रता का अंश सामान्यत: भंडारण के लिए आवश्यक आर्दता से अधिक होता है ।
उदाहरणार्थ धान में 18-25 प्रतिशत गेहूँ में 14-18 प्रतिशत, मक्का में 14-20 प्रतिशत जबकि भंडारण के लिए आर्दता की मात्रा सामान्यत: 12 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए ।
अत: अधिक आर्द्रता वाले बीज को सुखाना आवश्यक होता है ।
सुखाने के लिए निम्नलिखित विधियाँ प्रयोग में लायी जाती है -
- धूप में सुखाना ( Sun drying )
- वायु में सुखाना ( Air drying )
- रसायनों से सुखाना ( Drying by chemicals )
1. धूप में सुखाना ( Sun drying ) -
यह अनाज सुखाने की प्राचीन विधि हैं तथा बड़ी मात्रा में अनाज सुखाने के लिए अब भी प्रयोग की जाती है ।
सामान्यत: कृषक अनाज को खलियान में ही फैलाकर धूप में सुखाते हैं या फर्श पर अनाज सुखाया जाता है । फर्श गारे या डामर से लिपा हुआ या सीमेंट का होता है । एक टन अनाज सुखाने के लिए लगभग दस वर्ग मीटर क्षेत्र काफी होता है ।
यह एक सरल एवं सस्ती विधि है । इसमें अतिरिक्त ऊर्जा साधन की आवश्यकता नहीं होती हैं । परन्तु इस विधि में समय अधिक लगता है ।
प्राकृतिक कारणों जैसे वर्षा, चूहों, गिलहरियों, पक्षियों कीटों इत्यादि का प्रकोप रहता है जिससे क्षति और हानि होती है ।
बीज में यांत्रिक मिश्रण के अवसर अधिक होते हैं जिससे बीज की शुद्धता प्रभावित होती हैं ।
2. वायु में सुखाना ( Air drying )
( i ) सामान्य वायु से सुखाना ( Drying by normal air ) -
सैद्धान्तिक रूप से इस विधि में सामान्य वायु को बीज या खाद्यान्न में से होकर प्रवाहित करते हैं ।
इस विधि में अनाज को बोरों में भर लेते हैं तथा उन्हें बारी - बारी से छेददार चौकियों पर रख लेते हैं ।
बोरियों को पोलिथिन की काली चादर से ढक देते हैं । काली पोलिथिन सूर्य से अधिकतम ताप का अवशोषण करती है ।
वातावरणीय वायु को पम्प की सहायता से ढेर में से प्रवाहित करते हैं ।
इस प्रक्रिया से एक घंटे में 10 टन अनाज की लगभग चार प्रतिशत आर्द्रता कम की जा सकती है ।
इस विधि का प्रयोग खत्तियों में भरे अनाज को सुखाने के लिए किया जाता है ।
इस विधि से बीज को सुखाने के लिए अब झिरींदार कुठलों (Cribs) का प्रयोग किया जाता है । इसमें गोलाकार या आयताकार झिरींदार कुठले बनाये जाते हैं जिनकी दीवारें लकड़ी, बांस, लोहे की पत्ती या जालीदार ईंटों की निर्मित होती हैं ।
वायु के संचार के लिए 50-90 प्रतिशत क्षेत्र खुला होना चाहिए । कुठला पक्का एवं सुरक्षित होना चाहिये । सुखाई के लिए वातावरणीय वायु को प्रणोदित कर (forced) बीज में से प्रवाहित करते हैं ।
वायु को इस प्रकार प्रवाहित करना चाहिए कि वह सम्पूर्ण कुठले में संवाहित हो जिससे सारा बीज समान रूप से मुखे ।
यह विधि सामान्यतः धान एवं मक्का को सुखाने के लिए काम में लायी जाती है ।
( ii ) गर्म वायु से सुखाना ( Drying by ho air ) -
इस विधि में अनाज को गर्म वायु की धारा में गिराया जाता है । इन यन्त्रों में बीज को गर्म करने और सुखाने के लिए एक स्टोव, एक भट्टी (Boiler) तथा गर्म हवा प्रवाहित करने के लिए एक धोकनी पम्प, बीज को चलाने के लिए एक कनवेयर तथा बीज ढेर के लिए एक ब्रैकिट (charni bey) होता है ।
सुखाने के यन्त्र से सुखाने के उपकरण से बाहर आते समय बीज गर्म होता है उसे ठन्डा करने की आवश्यकता होती है ।
अत: इन उपकरणों के साथ टंकियाँ भी होती है जिनमें बीज सुखता और ठन्डा होता है ।
बीज को गर्म वायु से सुखाने में सामान्यतः सतह की आर्द्रता सरलता से घट जाती है परन्तु भीतरी आर्द्रता को दूर करना कठिन होता है ।
सतही नमी दूर होने से बीजावरण कठोर हो जाता है । जिससे बीज के भीतर की नमी का बाहर आना कठिन हो जाता है ।
अत: बीज को सुखाने की अन्तिम गति आर्द्रता की भाप बनने और उसके बाहर की ओर प्रसारित होने पर निर्भर करती है ।
अब बहाव द्वारा बीज सुखाने के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है ।
इन उपकरणों में बीज को गुरुत्व द्वारा प्रवाहित या चलाया जाता है । बीज की निकासी की गात पर मशीन द्वारा नियन्त्रण रखा जा सकता है । जब बीज नीचे की ओर प्रवाहित होता है तो गर्म वायु उसमें से होकर गुजरती है ।
बीजों के उपयुक्त प्रकार से उलटने - पलटने से बाहर निकलने वाले सुखे बीजों में आर्द्रता की समान मात्रा रहती है ।
वहाव द्वारा खाद्यान्न सुखाने के यन्त्रों का प्रयोग पंजाब राज्य में धान सुखाने के लिए किया जाता है । खाद्यान्नों को उच्च तापमान पर सुखाने से उनका आवरण कठोर हो जाता है ।
अत: उसे पिसना कठिन होता है । अधिक तापमान में सुखायी गयी मक्का से रटार्च (मांड) निकालने में कठिनाई होती है ।
धान को अधिक तापमान पर असमान रूप से सुखाने पर चावल की गुणवत्ता प्रभावित होती है ।
रसायनिक शुष्कन (Chemical Drying) धान संसाधन केन्द्र त्रिवारुर ( तमिलनाडु ) के अनुसन्धानको का कथन है कि सामान्य नमक के शुष्क या सान्द्र घोल में धान के बीज में से आर्द्रता कम करने की क्षमता होती है (पिलैयार एवं साथी, 1973) ।
उनके अनुसार परिपक्व धान पर नमक के ( sp.gr. 11-12 ) बोल का छिड़काव करने पर 2 दिन में दाने पीले पड़ने लगते हैं तथा उपचार के चार दिन बाद आर्द्रता 29 प्रतिशत से 14.5 प्रतिशत रह जाती है ।
खाद्यान्नों एवं बीजों के ग्रामीण - स्तरीय भण्डारण कैसे किया जाता है?
खाद्यान्नों एवं बीजों का ग्रामीण - स्तरीय भण्डारण (Rural - level storage of food grains and seeds) हमारे देश में कुल उत्पादन का लगभग 70% भाग किसानों द्वारा उपभोग, बीज पशुखाद्य एवं मजदूरी के भुगतान के लिए रखकर भण्डारित कर लिया जाता है ।
लगभग 30 % का विपणन किया जाता है, जो कि व्यापारियों एवं सरकारी एजेन्सियों द्वारा लिया जाता है ।
अब नयी सुधरी कृषि प्रौद्योगिकी के विकसित होने से किसान लम्बी अवधि तक खाद्यान्नों का भंडार कर सकते हैं । तथापि किसान और व्यापारी वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी से भंडार नहीं करते है जिससे काफी अधिक हानि होती है ।
जबकि सरकारी संस्थानों जैसे भारतीय खाद्य निगम (FCI), केन्द्रीय भण्डारग्रह निगम (CWC), राज्य भण्डार ग्रह निगम (SWO) इत्यादि द्वारा वैज्ञानिक आधार पर भण्डारण किया जाता है परन्तु इनमें कुल उत्पादन का केवल 3-5% भण्डार क्षमता है ।
ग्रामीण स्तर पर लगभग 3 माह से 2 वर्ष तक के लिए भण्डार किया जाता है । परन्तु इनमें सलवन के उपरान्त गुणता एवं मात्रा की काफी हानि होती है ।
भण्डार के दौरान अनाज पर कीटो, चूहों, पक्षियों एवं सूक्ष्मजीवों का आक्रमण होता है ।
इसके अतिरिक्त खाद्यान्नों में पक्षियों व चूहों आदि के विष्टा (excreta), बालो इत्यादि से उपभोक्ता को खतरा होता है दूसरी ओर सूक्ष्म जीवों के संक्रमण से उत्पन्न विषैले पदार्थों से विषाक्ता उत्पन्न होती है ।
भण्डारण में हुई हानि को निम्नतम करने से वास्तविक लाभ हो सकता है ।
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बीजों एवं खाद्यान्नों के भण्डारण से सर्वोत्तम निष्पादन प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित आवश्यकतायें है -
( 1 ) बीज व खाद्यान्नों को पूर्णतः स्वच्छ कीजिए, उनका श्रेणीकरण कीजिए तथा उन्हें सुरक्षित आर्द्रता स्तर तक सुखाइये जो कि खाद्यान्नों के लिए 10-12% तथा तैलीय बीजों के लिए 7-9% हैं ।
( 2 ) स्वच्छ एवं सुखे बीजों को उपयुक्त स्वच्छ एवं असंक्रमित संरचनाओं में भंडारित कीजिये ।
( 3 ) बीज भण्डार करने की संरचनायें इतनी प्रबल होनी चाहिये कि वे खाद्यान्नों का भार भली - भाँति सहन कर सके तथा उनका सम्पर्क बाहर की आर्द्र वायु से न हो पाये । भण्डार संरचनायें मकान के सबसे ठन्डा भाग में रखनी चाहिये ।
अनाज के भण्डार के लिए सबसे आवश्यक अनाज की आर्द्रता मात्रा पर सुरक्षित स्तर तक नियन्त्रण रखना है
खाद्यान्न आर्द्रताग्राही (hygroscopic) होते हैं । ये वर्षात से ही आर्द्रता ग्रहण नहीं करते है परन्तु वायु से भी आर्द्रता ग्रहण करते हैं ।
आर्द्रता अहिता तापक्रम व आर्द्रता तथा अनाज की सन्तुलन आर्द्रता मात्रा (equilibrium moisture content EMC) पर निर्भर करती है ।
वातावरण की 65 से 70 प्रतिशत आर्द्रता में कवकों का विकास प्रारम्भ हो जाता है । लम्बी अवधि के भण्डारण के लिए आर्द्रता स्तर को नीचा रखना आवश्यक होता है ।
परम्परागत भण्डारण विधियाँ एवं संरचनायें (Conventional Storage Practices and Structures)
अधिकतर अनाज का भंडार कमरों में ढेर के रूप में किया जाता है इसमें चूहों और कीटो से अत्यधिक हानि होती है ।
भंडार संरचनायें को मकान के एक कोने में रख दिया जाता है । अनाज के बोरों में भरकर भूस में दबाकर रख देते हैं ।
हालांकि इस विधि में आर्द्रता से सुरक्षा की जाती है, परन्तु चूहों से रक्षा नहीं होती हैं । कई स्थानों पर बास या लकड़ी की कोठियों का प्रयोग किया जाता है परन्तु ये उपयुक्त प्रकार से ढके नहीं जाते है जिससे प्राकृतिक प्रकोपों से रक्षा नहीं हो पाती हैं ।
मक्का के भुट्ठों को रसोईघर के पास छत से लटका दिया जाता है । इससे उनमें आर्द्रता नहीं बढ़ पाती है तथा कीटों का आक्रमण नहीं होता है ।
कुछ किसान दालो के बीजों को मिट्टी की गार (mud slurry) से उपचारित कर उन्हें सूखा कर भंडारित करते हैं । इससे वे कीटो से सुरक्षित रहते हैं तथा इससे बीज मान बढ़ जाता है ।
भंडार संरचनाओं को कीट रहित करने के लिए उनमें मोमबत्ती (candle) या कपूर (camphor) जलाते हैं जिससे ऑक्सीजन रहित हो जाती हैं । अधिकतर किसान भंडार में रसायनों के प्रयोग को नहीं जानते हैं ।
कुछ किसान खाद्यान्नो में DDT या BHC मिला देते हैं जिससे वह विषाक्त हो जाता है । इस प्रकार का व्यवहार बंद करना चाहिए ।
सामान्यतः ग्रामीण आंचल में भण्डारण के लिए निम्नलिखित संरचनाओं का पारम्परिक चलन है -
( 1 ) बोरें ( Gunny bags ) -
अधिकतर किसान खाद्यान्नों तथा बीजों को विभिन्न आकार के बोरों में भंडारित करते हैं । इनकी क्षमता 35, 50, 75 या 100 किलोग्राम की होती है ।
( 2 ) मिट्टी की कोटी व अन्य संरचनायें ( Mud bins and other structures ) -
मिट्टी की 100-1000 किलोग्राम क्षमता की कोठी में खाद्यान्न तथा बीज को भंडारित किया जाता है या मिट्टी के पक्के भांडों (containers) में रखा जाता है जिनकी क्षमता 5-100 किलोग्राम तक होती है ।
( 3 ) बांस की संरचनायें ( Bamboo Structures ) —
ये बांस को चीर कर बेलनाकार संरचना के रूप में बुनी जाती हैं जिनका आधार चौड़ा तथा मुख संकरा होता है । इन्हें पन्डोरा, कन्गी या ढोली कहते हैं ।
इनकी क्षमता 500 किलोग्राम तक होती हैं ।
( 4 ) लकड़ी की कोठी ( Wooden bins ) -
ये तमिलनाडु में अधिकतर के भंडार के लिए प्रयोग की जाती है । इन्हें लकड़ी से बनाया जाता है तथा इन पर काली पेन्ट पोत दी जाती है । इन्हें पथायाम कहते हैं । इनकी क्षमता 1000 किलोग्राम तक होती है ।
( 5 ) ईंटों की संरचनायें ( Brick Structers ) —
ये ईंटों से बनी संरचनायें घर का एक भाग ही होती है इनकी भंडारण क्षमता 50 से 200 क्विन्टल होती हैं । इन्हें बुखारी कहते हैं ।
( 6 ) भूमिगत संरचनायें ( Under ground structures ) -
ऐसे क्षेत्रों में जहाँ जल - स्तर ( water table ) नीचा होता है तथा निस्यंदन ( seepage ) नहीं होता है वहाँ उच्च स्थानों पर भूमि के अन्दर 100-400 सेमी गहरे गोलाकार जिनकी तली का व्यास 250-300 सेमी तथा द्वारा का व्यास 50-100 सेमी होता है खोद लिए जाते हैं ।
इनके पार्श्व एवं तली में भुसा व घास फूस लगा दिया जाता है । अनाज भरने के बाद मुख को भी भुसे व पत्थरों से ढककर मिट्टी के गारे से सील कर देते हैं ।
इनकी भण्डारण क्षमता 100-200 क्विन्टल होती है । इन्हें खत्ती या बान्दा कहते हैं ।
इन संरचनाओं में भण्डार करने से बीज की जीवन क्षमता घट जाती है अतः ये बीज भण्डारण के लिए उपयुक्त नहीं है ।
आधुनिक समय में भण्डारण की सुधरी प्रौद्योगिकी का विकास किया गया है ।
ग्रामीण भण्डारण की संशोधित संरचनायें ( Improved Rural - level Strage Structures )
धातु कोटि ( Metal bin ) -
भण्डारण के लिए धातु की बनी कोटी अत्योत्तम मानी जाती हैं । ये 18-20 गेज की ता. शीट की बनी होती है जिनका आवश्यकतानुसार विभिन्न परिमाण (size) हो सकता है ।
सामान्यतः 240 सेमी ऊँचाई तथा 120 सेमी ० व्यास का गोलाकार होती है । हापुड़ कोटी, 2-5.7.5 तथा 10 क्विन्टल क्षमता की उपलका है ।
अब ये ऐल्युमिनियम शीट की भी बनायी जाती है । ये सूर्य की गमीं का शोषण नहीं करती है तथा आपेक्षित लम्बो अवधि तक चलती है ।
उदयपुर कोटी ( Udiapur bin ) -
ये खाली कोलतार (Coaltar) के ड्रम से बनायी जाती है । ड्रम को साफ करके उन पर ढक्कन, हुक्स तथा सिटकनी (larch) लगा दी जाती है तथा इन पर पेन्ट कर दिया जाता है । इनमें 130 किया तक गेहूँ मक्का इत्यादि रखा जा सकता है ।
पत्थर कोटी ( Stone bin ) -
इन्हें चिनौड़ पत्थर कोठी भी कहा जाता है । ये स्थानीय उपलब्ध 4 mm मोटे शिला - फलक (stone slab) से बनायी जाती है । जिसका परिमाण 680 mam x 680 mm x 120 mm होता है । अनाज डालने व निकालने की संरचना एसबैस्टीस की बनी होती है । इनकी क्षमता 3.8 क्विन्टल की होती है ।
बांस कोटी ( Bamboo bin ) -
ये बांस की दोहरी दीवार की बनी होती है जिनके मध्य में पोलीथिन स्तर लगा होता है । ये विभिन्न क्षमता की होती है । इन्हें AICRP कोयमबटर द्वारा विकसित किया गया है ।
पक्की मिट्टी कोठी ( Baked clay bin ) -
ये मुख्यतः धान भण्डारण के लिए बनाई है । धान की 7 क्विन्टल क्षमता की कोठी 16 पक्की वलयों की बनाई जाती है । जोकि प्रत्येक 09m व्यास की होती है । जिसकी कुल ऊँचाई 1.5m होती है । यह मिट्टी के प्लास्टर, सीमेन्ट, मोर्टार तथा गाय के गोबर की एकान्तरित तहों की बनी होती है । इन वलयो को पोलीथिन की शीट से ढके प्लास्टर किवे प्लेटफार्म पर रखा जाता है । अनाज निकालने के लिए एक मुख छोड़ा जाता है । शीर्घ स्टील के ढक्कन से ढक दिया जाता है ।
पी० के० वी० कोठी ( P.K.V Bin ) -
यह उपयुक्त आकार के हरे बांस की खपचिथों से बनायी जाती हैं । इसकी टनल (tunnel), बाहर निकालने का फ्लेष वाल्व तथा पूर्ण स्टैन्ड को कार्यशाला (work shop) में बनाया जाता है ।
इसको उपयोग करने में निम्नलिखित सावधानियाँ रखी जाती हैं -
( i ) अनाज पूर्णरूप से सूखा होना चाहिये । इसकी आर्द्रता प्रतिशत गेहूं के लिए 11 % तथा दालों के लिए 8-10 % से कम होनी चाहिए ।
( ii ) कोठी पर प्लास्टर कर देना चाहिये ।
( iii ) अनाज को भरने से पहले स्वच्छ एवं धूमिकृत ( fumigate ) कर लेना चाहिये ।
( iv ) सम्पूर्ण कोठी को 5% मैलाथियान से छिड़काव / धूमिकृत कर लेना चाहिये ।
( v ) कोठी को पूरी क्षमता में भर लेना चाहिये तथा अनाज को केवल निकास द्वार से निकालना चाहिये ।
( vi ) कोठी के चारों ओर पूर्ण स्वच्छता रखनी चाहिये ।
( vii ) भरने के उपरान्त ढक्कन ठीक से बन्द कर देना चाहिये ।
पूसा कोठी ( Pusa bin ) -
पूसा कोठी का निर्माण करने के लिए सर्वप्रथम एक चबूतरा (plate form) बनाया जाता है । इस पर 700 गेज (0-7 mm thick) की पोलीथिन की शीट बिछा दी जाती है ।
पोलीथिन शीट चबुतरे के चारों ओर 6 सेमी ० बाहर निकली रहनी चाहिए । तदोपरान्त शीट पर कच्ची ईटों की 7 सेमी मोटी पर्त बिछा दी जाती है । चबूतरे पर कच्ची ईंटों से कोटी का निर्माण किया जाता है ।
कच्ची की 1 60 मी ० ऊँची 11 सेमी मोटी दीवार बनायी जाती है और उस पर भीतर की ओर चिकनी मिट्टी के गारे की प्लास्टर (लिसाई) कर दी जाती है ।
दीवारों पर लकड़ी का एक फ्रेम लगा दिया जाता है । उस पर पक्को ईंटों की छत बना दी जाती है । लकड़ी के फ्रेम को साधने (support) के लिए कोटी के अन्दर एक स्तम्भ (pole) भी लगा दिया जाता है ।
कोटी की सामने की दीवार में अनाज निकालने के लिए द्वार छोड़ दिया जाता है । उसमें प्लास्टिक या स्टील का पाइप लगा दिया जाता है जिसमें से सुगमतापूर्वक अनाज निकाला जा सके ।
द्वार पाइप पर चूड़ीदार ढक्कन चढ़ा दिया जाता है । कोटी के ऊपरी भाग में 50-50 सेमी आकार की अनाज भरने के लिए मोखी छोड़ दी जाती है ।
इसके पश्चात् पूरी संरचना को आयताकार पोलीथिन से ढक दिया जाता है । चबूतरे के आधार पर बाहर निकली पोलीथिन के किनारे सील करने में सहायक होते हैं ।
भरने वाली मोखी (filling hole) पर पोलीथिन को विकर्ण पर (diagonally) काट दिया जाता है ।
बाहरी दीवार 7 सेमी मोटी पक्की ईटों की दीवार बनायी जाती है तथा प्लास्टर कर दिया जाता है । छत को 5 सेमी भूसा मिश्रित गारे से ढक दिया जाता है । संरचना को सूखने दिया जाता है ।
तदोपरान्त अनाज भर दिया जाता है । मोखी को पहले (50 cm x 5 cm x 1 cm) लकड़ी की पट्टियों से बंद कर दिया जाता है ।
इसके ऊपर पोलीथिन बिछाकर 5 सेमी मोटी गारे की तह से प्लास्टर करके ढक दिया जाता है ।
पूसा कोटी आवश्यकतानुसार विभिन्न परिमाण को बनायी जा सकती है । इनमें बीज को 15 माह तक सुरक्षित रखा जा सकता है ।
पूसा कोटी के आधार पर बड़ी मात्रा में भण्डारण के लिये पूसा घनाकृति (Pusa cubicle) तथा पूसा कोटार (Pusa kothar) बनाये जाते हैं ।