भारत जैसे कृषि प्रधान देश में वनों का महत्व
(Importance of forest in hindi) औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं से कहीं अधिक है ।
किसी भी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में वनों का अत्यधिक महत्व है ।
चटरबक के कथननुसार -
"वन (forest in hindi) राष्ट्रीय संपत्ति है, आधुनिक सभ्यता को इनकी बड़ी है।
यह केवल जलाने की लकड़ी ही नहीं देते प्रत्युत हमारे उद्योग धंधों के लिए कच्चा माल और पशुओं के लिए चारा भी प्रदान करते हैं, किंतु वनों का अप्रत्यक्ष महत्व सबसे अधिक है।"
भारत में वनों का महत्व ( Importance of forest in hindi )
वनों के महत्व पर निबंध? Importance of forest essay in hindi
वन हमारी राष्ट्रीय सम्पत्ति एवं प्रमुख प्राकृतिक संसाधन (Natural resources in hindi) है ।
ये प्रकृति द्वारा नि: शुल्क रूप से मानव - जगत को उपहार के रूप में प्रदान किए गए हैं और समस्त जैव - जगत के लिए उपयोगी हैं ।
पारिस्थितिक सन्तुलन तथा प्राकृतिक पारितन्त्र को बनाये रखने के लिए जहाँ एक ओर वनों का संरक्षण अति आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर वृक्षारोपण द्वारा वन (forest in hindi) क्षेत्र में वृद्धि भी आवश्यक है ।
वनों से लाभ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के प्राप्त होते है ।
वन जलवायु को समाकरी रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
इनसे वायुमण्डल को आर्द्रता प्राप्त होती है अर्थात् वन वर्षा कराने में सहायक होते हैं ।
मिट्टी की उर्वरता में वृद्धि करने, उसका संरक्षण करने, दलदली तथा मरुभूमि के विस्तार को रोकने में वनों के योगदान को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
भूगर्भ में दबे वनों से ही कालान्तर में कोयला बनता है ।
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वन हमारे लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है?
वनों में अनेक ऐसे वृक्ष मिलते हैं, जो आज भी मनुष्य को स्वस्थ बनाए रखने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
अभी भी लोग गाँवों में फोड़ा - फुन्सी होने पर उसके घाव को नीम की पत्तियों के उबले पानी से धोकर साफ करते हैं तथा घाव को सुखाने के लिए उसकी छाल को पीसकर उसका लेप घाव पर लगाते हैं ।
इसी प्रकार तुलसी का पौधा विषाणुआ को नष्ट करने में सहायक होता है और उसकी पत्तियों का उपयोग कई रोगों को ठीक करने में किया जाता है ।
इसी तरह सतावर, गदह पुन्ना आदि औषधीय पौधों का उपयोग दवाइयाँ बनाने में किया जाता है ।
पेड़ - पौधे वातावरण से कार्बन डाइआक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं ।
हम इस ऑक्सीजन को साँस के रूप में ग्रहण करते हैं । अगर पृथ्वी पर पेड़ - पौधे न रहें तो मनुष्य को ऑक्सीजन कहाँ से प्राप्त होगी और मनुष्य कैसे जीवित रह सकेंगे ।
हमें लकड़ी छाल, पत्ते, रबड, दवाइयाँ, भोजन, ईंधन, चारा, खाद इत्यादि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से वनों से ही प्राप्त होती हैं ।
वन वर्षा करने, मिट्टी का कटाव रोकने और भूजल के पुनर्भरण में भी सहायक होते हैं ।
वन एवं वन्य जीव का महत्व?
वनों की भाँति ही वन के जीवों का भी बहुत महत्त्व है ।
वन और जीव, पर्यावरण को स्वच्छ और सन्तुलित रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं ।
उदाहरण के लिए - आजकल गिद्ध पक्षी भारतीय परिवेश में दिखाई नहीं पड़ रहे हैं ।
ये मरे हुए पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने में हमारी सहायता करते हैं ।
इनके समाप्त हो जाने के कारण मरे हुए पशुओं के शवों के इधर - उधर सड़ने से, वायु प्रदुषित होती है ।
गिद्ध इस पर्यावरण को स्वच्छ करते हैं, पर अब यह जाति प्राय: समाप्त होती जा रही है ।
बड़े जीवों की भाँति ही छोटे - छोटे कीट - पतंगों का भी बहुत महत्त्व है ।
उदाहरण के लिए - कई कीट महत्त्वपूर्ण पदार्थ जैसे शहद, रेशम और लाख बनाते हैं ।
वनों का आर्थिक एवं सामाजिक महत्व?
वनों में ही सभ्यता का जन्म, उसका विकास एवं फलना - फूलना हुआ है । जहाँ - कहीं इनका विकास रुक जाता है, वहीं अन्ततः शुष्कता का साम्राज्य होकर मरुस्थलों की उत्पत्ति हो जाती है ।
भारतीय सामाजिक जीवन में वनों के महत्त्व के संदर्भ में अग्निपुराण में कहा गया है -
एक वृक्ष दस पुत्रों के बराबर होता है, और पुत्र भी वह जिससे भूमि को आर्द्रता, शीतल वायु, छाया मिलती है, भूमि का अपरदन रुकता है तथा खाद के लिए शुष्क पत्तियाँ मिलती हैं और खाने के लिए अनेक प्रकार के कन्द - मूल एवं फल ।
ऐसा पुत्र जिसकी देखभाल 5 वर्षों तक करनी पड़ती है, उसके उपरान्त उसे न दूध की आवश्यकता होती है और न परिचायिका की ।
इसी भाँति वाराहपुराण के 'गोकर्ण महात्मा' नामक अध्याय में कहा गया है -
भूमिदानेन ये लोका गोदानेन चकीर्तिताः । ते लोकाः प्राप्यते मुक्तिः पादपाना : पुरोहणे ।।
( अर्थात् भूमिदान और गोदान करने से मनुष्य जो पुण्य प्राप्त होता है वही पुण्य वृक्षारोपण करने से प्राप्त होता है। )
वन एवं वन्य पशुओं के विकास हेतु भारत में अनेक राष्ट्रीय उद्यान ( National Parks ) बनाए गए हैं ।
जैसे - कॉर्बेट ( उत्तराखण्ड ), कान्हा और बान्धवगढ़ ( मध्य प्रदेश ), तदोबा ( महाराष्ट्र ), पलामू, हजारीबाग ( झारखण्ड ), घना पक्षी बिहार ( भरतपुर ), रणथम्भौर ( राजस्थान ), गिर ( गुजरात ), मानस एवं काजीरंगा ( असम ), सुन्दरवन ( प ० बंगाल ), पेरियार ( केरल ), बांदीपुर ( कर्नाटक ), दचिगाम ( कश्मीर ), आदि ।
वन एवं वन्य जीव संरक्षण के अंतर्गत बाघ को राष्ट्रीय पशु एवं मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया है ।
भारतीय वनों से प्राप्त विभिन्न प्रकार की काष्ठ ( Major Wood Types of Indian Forests )
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भारतीय वनों की उपयोगिता ( Utilization of indian forests in hindi )
भारतीय वनों का महत्व एवं उपयोग उनके क्षेत्र के कारण उतना नहीं है, जितना इस तथ्य के कारण है, कि उनसे कुछ विशिष्ट प्रकार की उपजे प्राप्त होती हैं, जो विश्व के अन्य भागों में उत्पन्न वनों से इतनी मात्रा में प्राप्त नहीं होती है ।
जैसे - चन्दन की लकड़ी, साखू, बीड़ी बनाने की पत्तियाँ, सर्पगंधा, बैलेडोना, नक्सवोमिका, एट्रोपा और एकोनाइट सरीखी बन्य औषधियाँ । इसलिए इनका इन वनों का राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व भी है ।
वनों वे प्राप्त होने वाली विभिन्न वस्तुओं दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है -
( 1 ) मुख्य उपजे एवं
( 2 ) गौण उपजे ।
( 2 ) गौण उपजे ।
इनमें मुख्य उपज के रूप में वन्य काष्ठ ( इमारती लकड़ी ) का आर्थिक महत्त्व सर्वाधिक है ।
वनों के उपयोग ( Uses of forest in hindi )
भारतीय वनों से प्राप्त विभिन्न प्रकार की काष्ठ ( Major Wood Types of Indian Forests )
भारतीय वन अनेक प्रकार की काष्ठ के विस्तृत एवं सतत स्रोत रहे हैं ।
इनसे विविध प्रकार की इमारती लकड़ियाँ मिलती हैं जिनका अत्याधिक व्यापारिक एवं आर्थिक महत्व है ।
इन वनों में सागवान, साल, देवदार, शीशम, चीड़, बबूल, चन्दन आदि की दृढ़ ओर टिकाऊ लकड़ियाँ मिलती है ।
1950-51 में 19 करोड़ रुपये के मूल्य की लकड़ियाँ वनों से प्राप्त की गयीं । इसके बाद के वर्षों में इसमें तेजी से वृद्धि होती रही है ।
वर्तमान में देश को ईंधन एवं औद्योगिक लकड़ियों के उत्पादन से प्रति वर्ष लगभग 4,734 करोड़ रुपये प्राप्त होते हैं ।
हिमालय क्षेत्र के वनों का काष्ठ ( Woods of Himalayan Forests )
हिमालय दूनिया का सर्वाधिक हरा - भरा पर्वत है । इसके वनों से अनेक प्रकार की इमारती काष्ठ प्रमुखता से प्राप्त होती है ।
इसमें निम्न वृक्षों की लकडियाँ प्रमुख हैं -
( 1 ) श्वेत सनोवर ( Silver Fir ) -
नुकीली पत्ती वाले 2,200 से 3,000 मीटर की ऊंचाई तक पश्चिमी हिमालय में कश्मीर से झेलम तक और पूर्वी हिमालय में चित्राल से नेपाल तक मिलते हैं । यह 60 मीटर तक ऊँचे ओर 6 से 7 मीटर तक मोटे सफेद व नर्म लकड़ी के होते हैं । अत: इसका प्रयोग पैकिंग, तख्ती, दियासलाई तथा कागज की लुग्दी बनाने में होता है ।
( 2 ) देवदार ( Deodara ) -
देवदार का सदाबहार पर्णपाती वृक्ष सामान्यत: 30 मीटर तक ऊँचा और 8 मीटर तक मोटा होता है । यह कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में 1,700 से 25.00 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है । इसकी लकड़ी साधारणत: कठोर भूरी , पीली , सुगन्धयुक्त तथा टिकाऊ होती है । इससे एक प्रकार का सुगन्धित तेल भी निकाला जाता है ।
( 3 ) चीड़ ( Cedi Deodara ) -
चीड़ की कीली पत्ती वाला सदाबहार वृक्ष 1,000 से 2,000 मीटर की ऊँचाई पर कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा नेपाल में बाहरी हिमालय में पाया जाता है इसकी ऊँचाई 18 से 20 मीटर तक होती है । इसकी लकड़ी हल्की होती है । इस कारण इसका उपयोग चाय पैक करने की पेटियाँ, प्लाई, बोर्ड बनाने और नाव बनाने में होता है । इस लकड़ी से तारपीन का तेल और बिरोजा प्राप्त किया जाता है । इसकी लकड़ी तेलयुक्त और कठोर होती है ।
यह प्राय: 21,00 से 3,600 मीटर की ऊँचाई तक मिलता है । इसकी लकड़ी सफेद व कोमल होती है, यह लकड़ी कश्मीर एवं पश्चिमी हिमालय प्रदेश में मिलती है । इसका प्रयोग मकानों की छतों पर तख्ताबन्दी एवं सस्ते फर्नीचर निर्माण में होता है ।
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मानसूनी वनों का काष्ठ ( Woods of Monsoon Forests )
इस प्रकार के वनों के अंतर्गत निम्न प्रकार की लकड़ियाँ मिलती हैं -
( 1 ) सागवान ( Teak ) -
यह तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिमी घाट, नीलगिरि पहाड़ियों के निचले ढालों तथा ओडिशा से प्राप्त होता है । सागवान का सर्वाधिक क्षेत्रफल मध्य प्रदेश में हैं । इसके मुख्य क्षेत्र महाराष्ट्र के उत्तरी किनारे चन्द्रपुर और खानदेश जिले तथा मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले हैं ।
इसकी लकड़ी बहुत दृढ़ और सुन्दर होती है तथा टिकाऊ होने के कारण इससे रेलगाड़ी के डिब्बे, फर्नीचर, इमारती सामान, जहाज, आदि बनाए जाते हैं । इसके वनों का क्षेत्रफल 57,200 वर्ग किलोमीटर है । इसका उपयोग टिकाऊ और घरेलु फर्नीचर बनाने में भी अधिक होता है ।
( 2 ) साल ( Sal ) -
इसके वन हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से लेकर असोम के नवगांव जिले तथा मेघालय में गारो की पहाड़ियों तक, हिमालय के निचले ढालों एवं तराई के भागो में विस्तृत रूप में पाये जाते हैं । उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, असम, छोटा नागपुर, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरी तमिलनाडु और ओडिशा में ये वन फैले हैं ।
लकड़ी भूरे रंग की कठोर और टिकाऊ होती है । इसके वन 1,06,500 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं । इसका प्रयोग वाहनों के ढांचे, जलयानों के ढांचे, चौखटें, लकड़ी की पेटियाँ, तम्बू, पुल, खम्भे, खिड़कियाँ l, स्लीपर बनाने और घरेलू कामों में होता है ।
( 3 ) शीशम ( Sisoo ) -
शीशम मुख्यत: उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, झारखण्ड, हरियाणा तथा तमिलनाडु के शुष्क भागों से प्राप्त होती है । कुछ सीमित परिमाण में यह पश्चिम बंगाल, राजस्थान, असम, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से भी प्राप्त होती है ।
इसकी लकड़ी भूरे रंग की होती है तथा साधारणतया कठोर होती है । इसका उपयोग मकान, फर्श तथा फर्नीचर बनाने और रेल के डिब्बे बनाने में होता है । इसके वनों का अत्यधिक विदोहन होने से वर्तमान में इसकी उपलब्धता अत्यन्त कम हो गई है ।
( 4 ) महुआ ( Mahua ) -
यह अधिकतर छोटा नागपुर के पठार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण - पूर्वी राजस्थान में बहुतायत में होता है । इसकी लकड़ी बहुत कठोर होती है इसलिए इसके काटने में बहुत कठिनाई होती है ।
इसका कच्चा फल पकाया जाता है और तेल निकाला जाता है एवं पके फल से विशेष प्रकार का मादक पेय भी बनाया जाता है ।
( 5 ) हर्ड - बहेड़ा ( Myrabolans ) -
इसके वृक्ष महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में मिलते हैं । यह दवाई और रंगाई के काम में आती है ।
बहेड़ा की लकड़ी बहुत कठोर होने के कारण पेटियाँ, सामान भरने के डिब्बे, आदि बनाने के काम आती है ।
( 6 ) चन्दन ( Sandalwood ) -
इसका वृक्ष मुख्यतः दक्षिणी भारत के शुष्क भागों ( कर्नाटक और तमिलनाडु ) में ही पैदा होता है । इसकी लकड़ी कठोर और ठोस होती है तथा इसका रंग पीला - भूरा होता है और इसमें से तेज सुगन्ध आती है ।
इसलिए इसका मूल्य व महत्व अधिक है । इससे चन्दन का तेल निकाला जाता है तथा लकड़ी का उपयोग खुदाई करने और सजावट अनेक प्रकार की वस्तुएँ बनाने में व चूरा अगरबत्ती बनाने में काम में लिया जाता है ।
( 7 ) सेमल ( Samul ) -
इसका वृक्ष असम, बिहार, झारखण्ड और तमिलनाडु में उगता है । इसकी लकड़ी मुलायम और सफेद रंग की होती है । इसका उपयोग खिलौने , तख्ते और पेटियाँ बनाने में होता है ।
( 8 ) सुन्दरी ( Sundari ) -
यह वृक्ष गंगा के डेल्टा क्षेत्र में बहुतायत से होता है । इसकी लकड़ी कठोर और ठोस होती है । इससे नाव, मेज, कुर्सियाँ, खम्भे, स्लीपर, जहाज के ढांचे आदि बनाये जाते हैं ।
( 9 ) अर्जुन ( Arjun ) -
इसकी लकड़ी सागवान से अधिक कठोर और भारी होती है । यह आसानी से चीरी - फाड़ी जा सकती है । इसका प्रयोग बैलगाड़ी, नावें और खेती के औजार बनाने में किया जाता है ।
( 10 ) हल्दू ( Haldu ) -
यह साधारणतया मजबूत और कड़ी लकड़ी होती है लेकिन यह आसानी से काटी जा सकती है । इसका रंग बहुत हल्का होता है । यह अधिकतर खिलौने और कंघे बनाने तथा खुदाई करने के काम में ली जाती है । यह लकड़ी उत्तरी मैदानों में सर्वत्र ही प्राप्त होती है ।
( 11 ) पलास ( Palas ) -
इसे ढाक भी कहा जाता है । इसके वृक्ष छोटा नागपुर और दक्षिण - पूर्वी राजस्थान के अधिकांश भागों में पाये जाते हैं । इसकी पत्तियों पर लाख के कीड़ पाले जाते हैं और चारे के रूप में प्रयुक्त होती हैं । साथ ही इसकी टहनियाँ जलाऊ लकड़ी के रूप में काम में आती है ।
( 12 ) कुसुम ( Kusum ) -
इसकी लकड़ी अत्यन्त कठोर, भारी एवं मजबूत होती है । अत: इसका प्रयोग औजारों के दस्ते और पहिये बनाने के काम में होता है । इस पर भी लाख के कीटों का पालन - पोषण किया जाता है ।
( 13 ) कंजू ( Kanju ) -
इसकी लकड़ी मुलायम होती । यह उत्तरी भारत में विशेषकर पशि चमी उत्तर प्रदेश में बहुतायत में मिलती है । यह अधिकतर सस्ता फर्नीचर, पेटियाँ, दियासलाई की डिब्बियाँ और स्लेटों के चौखटे बनाने के काम में आती है ।
( 14 ) जारुल ( Jarul ) व सिधू ( Sidhu ) -
इनकी लकड़ियाँ उत्तर - पूर्वी भारत, विशेषरूप से पश्चिम बंगाल और बिहार में बहुतायत में होती हैं । यह काफी मजबूत और टिकाऊ होती है । इसका प्रयोग मकान, नावें, खम्भे व सस्ते फर्नीचर बनाने में होता है ।
( 15 ) शहतूत ( Mulberry ) -
इसकी लकड़ी बहुत ही मुलायम और टिकाऊ होती है । इसलिए इससे खेल का सामान जैसे हाकी, टेनिस, रैकेट, क्रिकेट के बल्ले, आदि बनाए जाते है ।
सदाबहार वनों का काष्ठ ( Woods of Evergreen Forests )
इन वनों में भी अनेक प्रकार की काष्ठ पाई जाती हैं जिनमे से निम्न मुख्य है -
( 1 ) चपलास ( Chaplash ) -
यह साधारणतया मजबूत और टिकाऊ वृक्ष होता है । यह अधिकतर उत्तर - पूर्वी भारत में होती है । इससे फर्नीचर, जहाज और सामान भरने की पेटियाँ आदि बनाई जाती हैं । इस लकड़ी की एक किस्म एनी ( Aine ) है जो अधिकतर दक्षिणी भारत मिलती है । यह सागवा की भाँति मजबूत होती है ।
( 2 ) रोजबुड ( Rosewood ) -
यह फर्नीचर, पेटियाँ, वाहनों के ढाँचे और फर्श बनाने के काम में अच्छी मानी जाती है । इस प्रकार की लकड़ियाँ पश्चिमी घाट, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल में मिलती है ।
इसकी लकड़ी यद्यपि अत्यधिक मजबूत होती है किन्तु अधिक टिकाऊ नहीं होती । यह अधिकत्तर पश्चिम बंगाल, असम और अण्डमान द्वीप में मिलती है । इसका प्रयोग घरों के ढाँचे व छत बनाने, नावें बनाने व अन्य साधारण कार्यों में होता है ।
( 4 ) तलसुर ( Telsu ) -
इसकी लकड़ी अत्यन्त मजबूत, कड़ी एवं टिकाऊ होती है । निकृष्ट से निकृष्ट जलवायु में भी यह जल्दी नष्ट नहीं होती है ।
इसलिए इसका प्रयोग अधिकतर पुल बनाने, वाहन, जहाज, नावों तथा गाड़ियाँ बनाने के काम मे होता है । यह पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, केरल और अण्डमान द्वीप में पाई जाती है ।
( 5 ) नाहर ( Nahar ) -
यह लकड़ी यद्यपि बहुत मजबूत और कठोर होती है, किन्तु इस को काटने में बड़ी कठिनाई होती है । असोम और पश्चिमी समुद्र तट पर बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती है । इससे भी लढे, नावें और ढाँचे व पुल बनाये जाते है ।
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शुष्क वनों से प्राप्त होने वाली काष्ठ ( Wood of the Dry Forests )
इन वनों में भी कई प्रकार की काष्ठ प्राप्त होती है, जिसमें निम्न प्रमुख है -
( 1 ) बबूल ( Accacia ) -
बबूल या कीकर भारत में प्राय: सभी प्रदेशों में मिलता है । यह कहीं काटेदार झाड़ियों के रूप में तो कहीं वृक्षों के रूप में उगता है । बबूल वृक्ष की जाति बड़ी विशाल है ।
इसके अंतर्गत 430 किस्म के वृक्ष होते हैं जिनमें से भारत में केवल 25 किस्म के वृक्ष पाए जाते हैं । अधिकतर ये मैदानों में होते हैं । भारतीय बबूल की प्रत्येक किस्म का कुछ न कुछ व्यापारिक महत्त्व है ।
इसमें तीन किस्में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, ये हैं -
( i ) बबूल ( Accacia arabica ),
( ii ) कत्था ( Accacia catechu ) व
( ii ) कुमटा ( Accacia senegal ) ।
( ii ) कत्था ( Accacia catechu ) व
( ii ) कुमटा ( Accacia senegal ) ।
इन वृक्षों की छाल और गोद बड़े काम की होती है । बबूल का वृक्ष शुष्क व अर्द्धशुष्क जलवायु मे अच्छी तरह पैदा होता है । इसके विशेष क्षेत्र उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान महाराष्ट्र है । हरियाणा, पंजाब, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु क्षेत्र इसके अनुकूल नहीं है ।
सामान्यत: बबूल की अनेक किस्में होती हैं, इनमें तीन अधिक लोकप्रिय है -
( i ) तेलिया बबूल -
इसे गोड़ी और तेली भी कहते हैं । यही साधारणतया सर्वत्र दिखाई देता है । यह एक साधारण आकार का वृक्ष होता है जिसका छोटा - सा तना और मुलायम पत्तियाँ होती हैं ।
( ii ) कौड़िया बबूल -
इसका तना और भी छोटा और छाल अधिक खुरदरी होती है । यह अधिकांशत : बरार और खानदेश में उत्पन्न होता है । इसकी लकड़ी जलाने के काम आती है ।
( iii ) रामकांटा -
इसकी डालियाँ ब्रुश की तरह फैली होती हैं । यह पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दक्षिण भारत में उगता है । इसका नाम रामकांटा या रामकांटी होने के कारण बरार मे लोग इसे जलाने के काम नहीं लाते ।
बबूल के वृक्ष की छाल को सर्वत्र चमड़ा साफ करने के काम में लाया जाता है । पंजाब से पश्चिम बंगाल तक के चमड़ा बनाने वाले कारखाने इसका उपयोग करते हैं । कानपुर के कारखानों में इसकी सबसे अधिक खपत होती है ।
यह मोटे व सामान्य किस्म के चमड़े रंगने में सर्वत्र काम में लाई जाती है । परन्तु मुलायम चमड़ों के लिए यह उपयुक्त नहीं होती । बबूल खेजड़ा की छाल में खांचा कर देने से जो रस बहता है वही जमकर गोद बन जाता है । यह रस और मार्च से मई तक विशेषत: निकलता है ।
इसका औसत कुछ ग्राम ही होता है परन्तु किसी - किसी वृक्ष से एक किलोग्राम तक गोद निकल आता है । अच्छी किस्म का बबूल का गोंद कपड़े की छपाई और रंगाई व खाने में काम आता है । कागज बनाने में भी यह प्रयुक्त होता है ।
यह आयुर्वेदिक औषधियों में भी अनेक प्रकार से काम में लाया जाता है । इसके अतिरिक्त दियासलाइयाँ, स्याही, रंग और रंगलेप बनाने के लिए यह बड़े काम का प्रमाणित हुआ है ।
इस समय देश में मुख्यत: तीन प्रकार के गोंद का व्यापार होता है -
( i ) अफ्रीका से आयातित अरबी किस्म का गोंद,
( ii ) पठारी भाग का एवं आयातित मिश्रित किस्म का गोद,
( iii ) उत्तम किस्म का शुद्ध भारतीय गोंद ।
( iii ) उत्तम किस्म का शुद्ध भारतीय गोंद ।
अब भारत विविध, किस्म के गोंद व गोद पर आधारित रसायनों का यूरोप के बाजारों में निर्यात भी करता है ।
( 2 ) खेर वृक्ष या कत्था ( Catechu ) -
कत्था खैर वृक्ष की भीतरी कठोर लकड़ी से निकाला जाता है । खैर का वृक्ष अधिक बड़ा नहीं होता है । सामान्यत: इसके तने का घेरा 1 मीटर और ऊँचाई 1.5 मीटर होती है ।
इसकी गहरी भूरी कत्थई छाल एवं चाकलेटी लकड़ी को पानी में उबाल कर उस रस से कत्था प्राप्त किया जाता है ।
खैर का वृक्ष सिन्धु नदी से लेकर असम तक और भारतीय प्रायद्वीप में पाया जाता है । शुष्क भू - भागों में यह वृक्ष बहुतायत से होता है ।
भारत में तीन प्रकार के खैर के वृक्ष पैदा होते हैं -
( i ) पठारी खैर, पठारी भाग के उत्तरी अर्द्धशुष्क भागों में अरावली से बिहार तक एवं कुमायूं हिमालय में यह कत्थे के लिए प्रसिद्ध है ।
( ii ) आर्द्र प्रदेशों में होने वाला खैर । इसकी सिर्फ लकड़ी ही काम में आती है ।
( iii ) दक्षिणी उष्ण व भीतरी पठारी भागों का खैर । यह भी भीतरी भागों में कत्था बनाने के लिए विशेष उपयोगी है ।
भारत में प्राय: दो प्रकार का कत्था देखने में आता है । इनमें से एक का रंग हल्का होता है और बाजार में छोटे - बड़े, टुकड़ों अथवा वर्गाकार खण्डों के रूप में बिकता है ।
इसको प्रायः कत्था कहकर पुकारा जाता है । दूसरे प्रकार का कत्था अपेक्षाकृत गहरे रंग का होता है और प्राय: छोटे टुकड़ों घनाकार खण्डों या सिल्लियों के रूप में दिखाई देता है ।
इसका नाम कच है । कच केवल उद्योगों में काम आता है । इसका उपयोग रंगाई के लिए भी किया जाता है और संरक्षक तत्व ( Preserving Agent ) के रूप में भी ।
इसमें टैनीन की मात्रा पर्याप्त होती है । कत्था पान का अनिवार्य अंग है परन्तु इसके कुछ अन्य उपयोग भी हैं । अनेक रोगों उदाहरणार्थ, गला, मुंह, मसूड़ों ढीले पड़ जाने और खांसी तथा दस्तों आदि में इसका प्रयोग दवाई के तौर पर भी किया जाता है । फोड़े पर भी इसे लगाते हैं ।
काला कत्था, टिंचर और चूर्ण के रूप में बरता जाता है । कच ( Cutch ) का प्रयोग मुख्यत: कपास और रेशम की रंगाई और कपड़ों की छपाई के लिए किया जाता है ।
कच का उपयोग कागज, लुग्दी और कागज की रंगाई के लिए किया जा सकता है । नवीन अन्वेषणों से यह सिद्ध हुआ है कि कत्थे में से निकाली गई ऐकाकौटेचीन मूंगफली के तेल को बिगड़ने से रोकने के लिए काम में लाई जा सकती है ।
( 3 ) रीठा -
रीठा की बेल कांटेदार होती है जो पास की झाड़ियों आदि पर चढ़ती है । यह विशेष रूप से दक्षिण में पैदा होती है । रीठे की एक बौंडी में 6 से 10 रीठे तक होते हैं ।
जब रीठा सूख जाता है तो इसके ऊपरी भाग का रंग बादामी हो जाता है और कुछ सिकुड़ने पड़ जाती हैं । इसका उपयोग बाल धोने, शैम्पू बनाने, जेवर साफ करने, आदि में होता है ।
( 4 ) कुमटा -
बबूल वंश का तीसरा महत्वपूर्ण वृक्ष कुमटा है । इसका वृक्ष कांटेदार होता है लेकिन ऊँचाई में 3 मीटर से लेकर 4 मीटर तक ही होता है । इसकी छाल नरम तथा रंग में पीली - सी होती है ।
इसके सफेद फूलों में खुशबू भी होती है । कुमटा गुजरात के शुष्क पहाड़ी भागों, दक्षिण - पूर्वी पंजाब, अरावली की उत्तरी पहाड़ियों तथा राजस्थान के कुछ भागों में उगता है ।
इसकी लकड़ी जलाने व कोयला बनाने में काम आती है । कुमटा से ही असली गोंद निकलता है ।
( 5 ) कीकर -
सफेद कीकर का वृक्ष 2 से 5 मीटर ऊँचा तथा 3 इंच मोटा होता है । इसका वृक्ष शुष्क प्रदेशों में खूब होता है । भारत में यह पंजाब के मैदानों में तथा दक्षिणी प्रायद्वीप में शुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है । इसका एक इंची कांटा सीधा, सफेद रंग का और बड़ा मजबूत होता है ।
इसकी छाल ऊपर से बादामी और सफेद रंग की होती है । अन्दर से इसका रंग हल्का लाल होता है । प्रायः इसकी लकड़ी भारी तथा टेढ़ी - मेढ़ी होती है । लकड़ी का भीतरी भाग या पक्की लकड़ी बड़ी मजबूत तथा कठोर होती है ।
यह सामान्यत : खेती के औजार बनाने में, गाड़ियाँ बनाने तथा गाड़ी के पहिये बनाने में अधिक काम आती है । इसकी छाल का प्रयोग चमड़ा कमाने में किया जाता है ।
देहरादूर की सफेद कीकर की छाल में 9 प्रतिशत और कर्नाटक के वृक्ष की छाल में 21 प्रतिशत टैनीन होता है ।
इसे पीटने से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिसे मछली पकड़ने का जाल बनाने और घटिया किस्म के रस्से बनाने के काम में लाया जाता है ।
भारतीय वनों से इमारती काष्ठ के अतिरिक्त प्राप्त होने वाली गौण वस्तुएं
बहुमूल्य इमारती काष्ठ के अतिरिक्त भी भारतीय वनो से अनेक अन्य गौण उपज प्राप्त होती है ।
इनका मानवीय जीवन में अत्यन्त उपयोग है तथा ये व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं ।
विशेष रूप से अनेक ऐसी जड़ीबूटियाँ हैं जो केवल भारतीय वनों में ही पायी जाती हैं तथा भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का आधार हैं ।
वनों से प्राप्त गौण उपज ( Minor Products of Indian Forests )
इमारती काष्ठ के अतिरिक्त भी वनों से 3,000 से भी अधिक किस्म की ऐसी वस्तुएँ प्राप्त होती है, जिनका मानवीय जीवन में अत्यधिक उपयोग एवं महत्त्व है ।
इनमें प्रमुख - शहद, मोम, बांस, आंवला, आम, बेत, अनेक प्रकार के रेशे, तेदू पत्तियाँ, घासे, गोंद, राल, बिरोजा, हर्ड, बहेड़ा, जड़ी - बूटियां, बबूल और चमड़ा रंगने की छाले आदि । साथ ही भारतीय वनों में जो व्यापारिक लकड़ियाँ मिलती है उनका उपयोग एसैटिक एसिड, एसीटोन, मिथाइल ऐल्काहल, तेल, ( रेशा - घास, लेमन, चन्दन ) निकालने में किया जाता है ।
भारतीय वनों से अनेक प्रकार की औषधियाँ भी प्रमुखता से प्राप्त की जाती हैं -
जैसे - सारसपरिला, सिन्कोना, सर्पगन्धा, असगन्ध, मूसली, सतावर, बैलेडोना, ऐकोनाइट, नक्सवोमिका, सनाय, वसाका आदि ।
भारतीय वनों से प्राप्त प्रमुख वस्तुओं का विवरण निम्न प्रकार है -
लाख ( Shallec )
में विश्व की सबसे अधिक लाख ( Shallec ) उत्पन्न की जाती है । यहाँ से विश्व की 85 प्रतिशत से अधिक लाख प्राप्त होती है ।
लैसिफर लक्का ( Laccifar lacca ) या लाख का कीड़ा ( Lac Bug ) कुसुम, बरगद, सिरस, खैर, अरहर, रीठा, घोंट, सीसू, क्रोटन, पीपल, बबूल, गूलर और पलास, आदि वृक्षों की नरम डालों के रस को चूसकर एक प्रकार का चिपचिपा पदार्थ निकालते रहते हैं, इसे ही लाख (Shallec in hindi) कहते हैं ।
ये वृक्ष विशेषत: बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में पैदा होता है ।
लाख का कीड़ा प्रधानत: समुद्र तल से 305 मीटर ऊँचे भागों में , जहाँ 12°C से ऊँचा तापमान और 150 सेण्टीमीटर से कम वर्षा हो, पाला जाता है ।
बहुत - से क्षेत्रों में तो लाख वृक्षों पर जंगली अवस्था में भी पायी जाती है ।
अत: जिन क्षेत्रों में लाख का कीड़ा बिना पाले हुए मिलता है वही स्थान लाख के अनुरूप समझा जाता है । अधिकतर लाख को उत्पन्न करना पड़ता है ।
लाख पैदा करने के लिए लाख के कीड़ों वाली छोटी - छोटी लकड़ियाँ वृक्षों के तनों से बांध दी जाती हैं । ये कीड़े धीरे - धीरे सारे वृक्ष पर जून से नवम्बर के मध्य फैल जाते हैं और वृक्षों का रस चूसकर लाख बनाते रहते हैं ।
छ: महीने के पश्चात् लाख इकट्ठी कर ली जाती है । इस लाख को पीसकर चलनियों से छाना जाता है फिर उसे कई बार धोकर शुद्ध लाख ( Shellac ), दाना लाख ( Seed lac ) या बटन लाख ( Button lac ) प्राप्त की जाती है बाद में इससे चमड़ा तैयार की जाती है ।
यह काम उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर, झारखण्ड में रांची और इमामगंज, मध्य प्रदेश में कटनी, गोंदिया और उमरिया तथा पश्चिम बंगाल में खटरा और कोलकाता में किया जाता है ।
देश में लाख उत्पादन के मुख्य क्षेत्र निम्नलिखित हैं -
( i ) बिहार / झारखण्ड - छोटा नागपुर संभाग ( यहाँ देश का 50 प्रतिशत भाग से अधिक उत्पादान होता है ), संथाल परगना और गया जिले ।
( ii ) प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ - बिलासपुर, भण्डारा, रायपुर, बालाघाट, छिंदवाड़ा, जबलपुर, सरगुजा, माण्डला, रायगढ़, उमरिया, शहडोल और होशंगाबाद जिले ।
( iii ) पश्चिम बंगाल - मुर्शिदाबाद, मालदा और बांकुड़ा जिले ।
( iv ) मेघालय - ( खासी और जयन्तिया, गारो की पहाड़ियाँ ) और असम - ( नौगांव, कामरूप और शिवसागर जिले ) ।
( v ) ओडिशा - सम्बलपुर, मयूरभंज, बोलगिरी, ढेनकनाल और क्योंझर जिले ।
( vi ) गुजरात - पंचमहल और वडोदरा जिले ।
( vii ) उत्तर प्रदेश – मिर्जापुर जिला ।
एक वर्ष में लाख की चार फसलें प्राप्त हो जाती हैं । ये फसले वर्ष के जिन महीनों में काटी जाती है उन्हीं के अनुसार इनको सम्बोधित किया जाता है ।
रंगनी अंशु ( Strain ) -
बेर और पलास के वृक्षों से प्राप्त होने वाली फसलों को बैशाखी और कतकी 'कुसुम' वृक्षों पर 'कुसुम' अंशु प्राप्त होने वाली फसलें अगहनी और जेठवी के नाम से पुकारी जाती है ।
इन सबमें 'बैशाखी' फसल सबसे बड़ी होती है । व्यावसायिक दृष्टि से इसी का महत्व अधिक होता है ।
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भारत के कुल उत्पादन में रगीली फसलों -
अर्थात् 'बैशाखी' और 'कतकी' का भाग क्रमश: 62 प्रतिशत और 23 प्रतिशत है तथा 'कुसुम' फसलों - 'जेठवी' और 'अगहनी' -का भाग 15 प्रतिशत होता है ।
बैसाखी ( Baisakhi ) -
फसल का 63 प्रतिशत भाग बिहार एवं झारखण्ड से 19 प्रतिशत मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से शेष अन्य राज्यों से प्राप्त होता है ।
कतकी ( Katki ) -
फसल के कुल उत्पादन में बिहार एवं झारखण्ड और मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ का भाग क्रमश: 42 प्रतिशत और 34 प्रतिशत होता है । शेष अन्य राज्यों से प्राप्त होता है ।
जेठवी ( Jethavi ) -
फसल का 70 प्रतिशत बिहार एवं झारखण्ड 18 प्रतिशत मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ और शेष अन्य राज्यों से मिलता है ।
अगहनी ( Aghani ) -
फसल का 75 प्रतिशत भाग बिहार एवं झारखण्ड से और 15 प्रतिशत भाग मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ से तथा शेष अन्य राज्यों से मिलता है ।
सन् 1950-51 में लाख का उत्पादन 40 हजार टन था । उसके बाद इसमें क्रमश: वृद्धि हुई और सन् 1960-61 में यह 63 हजार टन हो गया ।
तत्पश् चात् इसमें धीरे - धीरे कमी होती गई । सन् 1970-71 में इसका उत्पादन 27 हजार टन तथा 1980-81 में केवल 15.6 हजार टन ही रह गया । वर्तमान में लाख का उत्पादन प्रतिवर्ष 29 हजार टन है ।
भारत में लाख निर्यात में निरन्तर वृद्धि होती रही है । कुछ उत्पादन का 90 प्रतिशत निर्यात किया जाता है ।
1971-71 में यह मात्र 4.9 करोड़ एवं 1980-81 में 26 करोड़ रुपये रहा । वर्तमान में प्रतिवर्ष 67 करोड़ रुपये की लाख का निर्यात किया जाता है ।
यह निर्यात मुख्यत: अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, हांगकांग, इटली, फ्रांस, जापान, चीन, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, अर्जेण्टाइना और रूस को होता है ।
भारत विदेशों से विशेषतः थाईलैण्ड और मलेशिया से लाख का आयात भी करता है । उससे चमड़ा या बटन लाख बनाकर पुनः निर्यात कर देता है ।
भारत से लाख का निर्यात मुख्यत: दाना लाख और चपड़े के रूप में होता है । लाख का सबसे बड़ा गुण है कि यह मद्यसार को छोड़कर अन्य सामान्य द्रवों में नहीं घुलता ।
यह एक विद्युत निरोधक भी है । इन्हीं दोनों कारणों से लाख का उपयोग अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने में किया जाता है ।
भारत में लाख का उपयोग लेपन उद्योग में बहुत अधिक होता है । रंग - रोगन, विद्युत एवं टेलीफोन तारों पर लेप करने, आदि उद्योगों एव ग्रामोफोन रेकार्ड में अधिक होता रहा है ।
इसके अतिरिक्त यह प्राय: दवाइयाँ, नाखून पर लगाने की पालिश, डेंटल - प्लेट, आतिशबाजी और युद्ध - सामग्री, जवाहरात की जड़ाई, बरतनों आदि पर लेप करना, चिकनाई रोक कागज, शीशे के लिए लेप, मोम की रंगीन पेंसिल बनाना, ऐनकों के प्रेम, ग्रामोफोन रेकार्ड, मोमजामा, बिजली निरोधक तार व कपड़ा, मुहर लगाने का चपड़ा, माइकेनाइट उद्योग, आदि में काम आता है ।
भारत में कच्ची लाख लाख तैयार करने के 198 कारखाने हैं -
बिहार एवं झारखण्ड में 83, पश्चिम बंगाल में 87, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में 16, महाराष्ट्र में 6 ओर उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड में 6 हैं । आज भी लाख इकट्ठा करने में अधिकांशतः आदिवासी ही लगे हैं ।
चमड़ा रंगने के पदार्थ ( Tanning Materials )
भारतीय वनों में उत्पन्न अनेक वृक्षों की छाल, फल, आदि चमड़ा कमाने और रंगने के काम आते हैं । बबूल तथा गैम्बीयर के वृक्षों की छाले, आंवला, हर्ड और बहेड़ा, टीमरू आदि से चमड़ा कमाया और रंगा जाता है ।
यह वृक्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और हरियाणा में बहुतायत से उगता है । तुरबद की झाड़ियों की जड़ों से छाल प्राप्त कर चमड़ा रंगने का कार्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु में किया जाता है ।
डेल्टाई वनों में सुन्दरी वृक्ष की छाल से तथा शुष्क पहाड़ी भागों और तराई के वनों में कच वृक्ष के फल से चमड़ा रंगा जाता है ।
बहेड़ा फल ( Terminalia chebula )
बहेड़ा फल का सबसे अधिक उपयोग चमड़ा रंगने के लिए किया जाता है । राजस्थान में आंवला, टीमरू की छाल, ढाक के फूल और फलों से हरा, नीला, लाल और पीला रंग प्राप्त कर कपड़ा और चमड़ा रंगा जाता है ।
चमड़ा रंगने के प्रयुक्त किया जाने वाला प्रमुख आधुनिक वृक्ष है -
वैटल ( Wattal ) -
यह वृक्ष पहले दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया तथा तस्मानिया में होता था । भारत में 1840 में इसे लगाया गया था । उस समय यहाँ ईंधन की कमी थी, उसी की पूर्ति के लिए इसे लगाया गया था ।
यह 1,500 मीटर से लेकर 2.100 मीटर की ऊँचाई वाले स्थानों में ही उगता है जहाँ वर्ष भर कम से कम 150 सेण्टीमीटर वर्षा अवश्य हो । यह नीलगिरि के पठार, पालनी की पहाड़ियाँ और केरल में पैदा किया जाता है ।
इसकी छाल में 35 प्रतिशत टैनीन होता है ।अत: इससे चमड़ा भी खूब कमाया जाता है ।
कागज की लुग्दी ( Paper Pulp )
कागज के लिए प्रयोग की जाने वाली लुग्दी भिन्न - भिन्न प्रकार की नरम लकड़ियो ( स्यूस, चीड़ आदि ), घासों ( मूंज, सवाई, भाबर, भैब और हाथी घास ) तथा अन्य वन पदार्थो से तैयार की जाती है ।
हाथी घास विशेषकर पश्चिम बंगाल, असम, और उत्तर प्रदेश में और अन्य उपर्युक्त घासें छोटा नागपुर, ओडिशा, उत्तराखण्ड की तराई में मिलती है ।
अब बांस यूकेलिप्टस, मोटी घास एवं अन्य वृक्षों के फार्म लगाकर भी कागज की लुग्दी हेतु लकड़ी प्राप्त की जाती है ।
अत: भारत में बांस व यूकेलिप्टस की लकड़ी की लुग्दी का उत्पादन तेजी से बढ़ा है ।
भारत मुख्यत: अखबारी कागज व अखबारी कागज हेतु लुग्दी का आयात करता है ।
गोंद, राल व बिरोजा एवं तेल ( Paper Pulp ) गोंद ( Gum )
सामान्यत: नीम, पीपल, खेजड़ा, कीकर, खेर, बबूल, आदि वृक्षो का रस होता है, जो सूखने पर इन वृक्षों के तनों पर जम जाता है ।
इससे चिपकाने वाला गोद, चूडियों व खाने वाला गोंद बनाया जाता है । वस्त्रों पर छीट, बेल - बूटे, आदि छापने के रंग तैयार करने तथा काली स्याही तैयार करने में भी यह भारी मात्रा में उपयोग में लाया जाता है ।
राल और बिरोजा ( Pinus roxburghii )
चीड़ और नीली चीड़ के वृक्षों पर चीरे लगाकर दूध के रूप में जो पदार्थ प्राप्त होता है उसे राल कहते हैं ।
इसी राल से तारपीन का तेल बनाया जाता है । तेल बनाने के उपरान्त जो मैल बच जाता है वह शुष्क होने पर बिरोजा ( Risin ) कहलाता है ।
राल का उपयोग स्याही, कागज, तेलिया कागज, लाख, साबुन, आदि बनाने में किया जाता है ।
राल अधिकतर उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों से प्राप्त की जाती है । तारपीन के तेल से वार्निश, नकली कपूर और जूतों की पालिश तैयार की जाती है ।
इसके अतिरिक्त तुंग के वृक्षो से तेल निकाला जाता है । इसका प्रयोग वार्निश, रंग तथा जल - निरोधक कपड़े बनाने में किया जाता है ।
यह अधिकतर असम, बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड में पैदा होता है ।
रतजोत ( Jetropha )
रतजोत से भी तेल प्राप्त होता है, जिससे बायो डीजल बनाया जाता है । इसके पौधों सूखे प्रदेशों में सामाजिक वानिकी के अंतर्गत प्रमुखता से लगाये जाने लगे हैं ।
गूगल सुगंधित धूम के काम आता है जिसका वृक्ष मुख्यत: राजस्थान के शुष्क कंटीले क्षेत्रों में अधिकता से पैदा होता है ।
इसके अतिरिक्त महुआ ( Mahua ) के फलों से तेल एवं शराब निकाली जाती है, जो राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और महाराष्ट्र में होता है ।
दियासलाई एवं बाँस ( Matches and Bamboos )
दियासलाई बनाने के लिए सेमल, मुरकट, धूप, पपीता, आम, सुन्दरी, सलाई, आदि वृक्षों की लकड़ी काम में ली जाती है ।
ये वृक्ष मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड की तराई में पाये जाते हैं ।
बांस और बेंत ( Babboos ) की उपज मुख्यतः महाराष्ट्र, दक्षिणी राजस्थान, ओडिशा, बिहार व झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, असम, नगालैण्डय, मेघालय, त्रिपुरा राज्यों में होती है ।
इनसे छप्पर, टोकरियाँ, मेजें, मकान की छतें, कुर्सियाँ , फर्नीचर, आदि बनाये जाते हैं ।
घासें ( Grasses )
भारत के कई भागों में सुगन्धित घासें पायी जाती हैं जिनसे सुगन्धित तेल प्राप्त किया जाता है ।
( i ) खसखस घास ( Vetiveria ziziniodes )
मुख्यत: राजस्थान के भरतपुर और सवाई माधोपुर जिले तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले से प्राप्त होती हैं इससे खसखस का तेल, इत्र और खसखस की टट्टियाँ बनायी जाती हैं ।
( ii ) रोशा घास ( Rosha grass )
महाराष्ट्र, दक्षिणी भारत और मध्य प्रदेश के शुष्क भागों में पैदा होती हैं । इससे सुगन्धित तेल और कृत्रिम सुगन्ध बनायी जाती है ।
( iii ) अग्नि घास ( Lemon grass )
कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में पैदा होती है । इससे नींबू की सुगन्ध वाले द्रव तैयार किए जाते हैं । यह मुख्यत: सुगन्धित प्रसाधन सामग्री, कीमती नहाने का साबुन, आदि में काम में आता है ।
( iv ) हाथी घास, सवाई, भैब, आदि घासों का उपयोग कागज बनाने में विशेष रूप से किया जाता है । ये घासे तराई, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल तथा असोम वनों से प्राप्त होती है ।
अन्य वस्तुएँ ( Other Materials )
उपर्युक्त वस्तुओं के अतिरिक्त अनेक अन्य महत्त्वपूर्ण पदार्थ भारतीय वनों से प्राप्त किये जाते हैं, जैसे -
( 1 ) पौष्टिक फल, जैसे - बेल, आंवला, खिरनी, इमली, गोंद, आम, जामुन, सीताफल, टीमरू, महुआ, चिरौंजी, अखरोट, चिलगोजा, काजू, सिंघाड़ा, करौंदा, फोकम, मुंगा, कैथ, जिमीकन्द, शहतूत, भिलावा आदि ।
( 2 ) हाथीदांत, हड्डियाँ, मोम, शहद, कत्था, कछ, पक्षियों के पंख, सिंह चर्म और मृगछाल, सींग, चमड़ा और खालें ।
( 3 ) रीठा, रंग बनाने वाले फूल और पौधे, राल, रबड़ ।
( 4 ) रेशेदार पौधे, सेमल, आक, रामबांस, वन कपास ।
( 5 ) अनेक प्रकार के व्यापारिक महत्व की जड़ी - बूटियाँ जैसे - हर्ड, बहेड़ा, आंवला, सुपारियाँ आदि एवं सुगन्धित व औषधि तेल की बूटियाँ जैसे - कुचला, क्रीसोट, पिपरमिंट, क्लोरोफॉर्म, ऐसीटिक ऐसिड, सर्पगंधा, शंख पुष्पी, ब्राह्मी, बैलेडोना, सिंकोना, मेथिल ऐल्कोहॉल, सल्फोनोमाइड औषधियाँ आदि वनों में पाई जाती हैं । साथ ही धतूरा, भांग आदि नशीली वस्तुएँ भी वनों से प्राप्त होती हैं ।
( 6 ) तेदूं की पत्तियाँ बीडियाँ बनाने के काम में लाई जाती हैं । ये मुख्यत: मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु से प्राप्त की जाती हैं ।