पर्यावरण प्रकृति का मानव को अमूल्य उपहार है ।
वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण की भारी चपेट में है ।
इसे प्रदूषण मुक्त कर संरक्षण प्रदान करने के लिए वन संसाधनों का संरक्षण के उपाय एवं उनका विकास है ।
वन (forest in hindi) विहीन पर्यावण की कल्पना ही निरर्थक है ।
वन संरक्षण एवं विकास के पुन: स्थापना से भूमि का कटाव रुकेगा, वनों के संरक्षण से प्रत्येक क्षेत्र के इकोतन्त्र का जैव विकास विशेष आवास के अनुसार विकसित हो सकेगा ।
भारत में वनों के संरक्षण एवं विकास के लिए अनके प्रकार के उपाय अब तेजी से प्रभावी होते जा रहे हैं ।
वन (forest in hindi) हमारी राष्ट्रीय सम्पत्ति है ।
इसका चक्रीय संसाधनों की भांति निरन्तर विकास एवं संरक्षण दोनों ही आवश्यक है ।
वनों के संरक्षण के लिए भारत में क्षेत्रवार एवं राष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रकार से प्रयास पांचवी योजना से ही किए जाते रहे है ।
भारत में वन संसाधन संरक्षण के उपाय एवं वनों का विकास
भारत में वन संसाधन संरक्षण के उपाय एवं वनों का विकास |
पारिभाषिक रूप में पर्यावरण वे कारक हैं, जो हमारे चारो ओर उपस्थित हैं ।
रूप से - पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि इन पाँच अमूल्य भौतिक तत्वों से पर्यावरण का निर्माण हुआ है ।
जबकि स्थूल रूप में हवा, पानी, मिट्टी, पेड़ - पौधों एवं जीव - जन्तुओं के रूप में पर्यावरण हमारे बाहरी परिवेश का निर्माण करता है ।
भारत ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पंचवर्षीय योजनाओं को वृहद पैमाने पर प्रयुक्त किया है ।
वन संसाधन संरक्षण की क्या आवश्कता है?
पर्यावरण वृहत् अर्थों वाला शब्द है ।
भौतिक पर्यावरण सकल पर्यावरण जगत का नियामक एवं आधार है ।
भौतिक पर्यावरण के सन्तुलित स्वरूप में जैविक तत्त्वों के अंतर्गत वनस्पति एवं प्राणी जगत आते हैं ।
किन्तु स्वयं प्राणी जगत भी तकनीकी अर्थों में उपभोक्ता है और वह आधार भूत उत्पादक या वनस्पति पर ही निर्भर है ।
इस प्रकार मानव एवं स्थान विशेष के पर्यावरण के भौतिकीय सन्तुलन एवं भौतिक पर्यावरण के जैव जगत का आधार प्राकृतिक वनस्पति या प्राथमिक उत्पादक हैं ।
क्योंकि वनस्पति पर ही सभी प्रकार के शाकाहारी जीव निर्भर करते हैं ।
शेष सफल जैव जगत एवं सम्पूर्ण अणु जैव जगत ( कवक, अपघटक, कीटाणु, विषाणु एवं जीवाणु आदि ) सभी शाकाहारी प्राणियों, अन्य प्राणियों, वनस्पति एवं मृत अवशेषों पर निर्भर हैं ।
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वनों के संरक्षण एवं विकास हेतु निम्न सुझाव प्रमुख रूप से उपयोगी हैं -
( 1 ) देश के सभी भागों में राष्ट्रीय पार्को एवं अभयराण्यों की संख्या में निरन्तर वृद्धि की जानी चाहिए । प्रति बड़े राज्य में 3 से 5 वर्षों में एक राष्ट्रीय पार्क एवं सभी जिलों में से प्रत्येक जिले में नवीन अभयारण्यों का निरन्तर विकास किया जाना चाहिए । इसे राष्ट्रीय नीति का अंग बनाया जाए ।
( 2 ) देश के सभी भागों में जलवायु एवं भू - व्यवस्था व धरातल स्वरूप के अनुसार निर्धारित वनस्पति तन्त्र अथवा विशेष क्षेत्र में आरक्षित वन क्षेत्रों व नम पट्टियों का विकास किया जाए । ऐसे क्षेत्रों के वनों के संरक्षण का उत्तरदायित्व भी विशिष्ट स्तर पर निर्धारित किया जाए ।
( 3 ) राष्ट्रीय वन मण्डल, राष्ट्रीय वन अनुसन्धान परिषद एवं केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय को मिलाकर वन विकास पर आधारित योजना बनानी चाहिए । राजस्थान, हरियाणा, गुजरात , कर्नाटक जैसे राज्यों के बंजर, पहाड़ी एवं बेकार पड़े एवं भूकटाव से ग्रसित क्षेत्रों में वनों का तेजी से विकास किया जाना चाहिए । देहरादून एवं जोधपुर की CAZRI सस्थानों के कार्य इस ओर सराहनीय रहे हैं ।
( 4 ) नव - विकसित वृहत् सिंचाई परियोजना के कमाण्ड क्षेत्र में पहले से ही 40 से 50 प्रतिशत अल्पविकसित एवं गैर - कृषि भूमि पर व्यावसायिक, उपयोगी अथवा फलदार वृक्षों के उद्यान एवं अभयारण्यों के विकास की राष्ट्रीय नीति बनाई जाए ।
( 5 ) देश के पहाड़ी व पठारी, परती एवं उजाड़ क्षेत्रों, पूर्व के नष्ट किए गये वन क्षेत्रों, बंजर एवं वन रहित पहाड़ी भागों में विशिष्ट जल संरक्षण प्रणाली के आधार पर बड़े पैमाने पर वन लगाये जाएँ एवं उनकी समुचित देखभाल की जाए ।
( 6 ) आरक्षित घने व अन्य वन क्षेत्रों से जितने क्षेत्र से वृक्ष काटे जाएँ उससे 25 प्रतिशत अधिक क्षेत्र में सघन वन लगाए जाएँ । इसी भाँति बांध, रेल व सड़क मार्ग, नहरी नगरीय व कृषि भूमि, आदि के विकास के साथ - साथ नवीन वन क्षेत्रों का नहरी कमाण्ड क्षेत्र, मार्गों व नहरों के निकट वनों की चौड़ी पट्टी बना कर वनों की पुनः स्थापना की जाए ।
( 7 ) आरक्षित वन क्षेत्रों से वनों की कटाई, घास की चराई व अन्य प्रकार से वृक्षों के लिए हानिप्रद कार्यों पर सभी प्रकार से नियन्त्रण लगाये जाएँ ।
( 8 ) इमारती लकड़ी के स्थानापन्न के रूप में घरों के दरवाजे खिडिकियों एवं फर्नीचर के निर्माण में प्लास्टिक / फाइबर तथा स्टील का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
( 9 ) घरेलू ईंधन में लकड़ी के स्थान पर बायो गैस, सोलर कुकर, विद्युत, चूरे या बुरादे का ईंधन, नगरीय वेस्ट से बना ईंधन व गैस एवं खनिज तेल व LPG उत्पादों को अर्थात इन्हें स्थानापन्न साधनों के रूप में बढ़ावा दिया जाना चाहिए । इससे वनों पर बढ़ता दबाव घटेगा ।
( 10 ) प्राथमिक शिक्षा से ही वनों के महत्त्व, संरक्षण एवं उसके प्रति प्रत्येक नागरिक कर्तव्य, जागरूकता एवं प्रशासन की उपेक्षा का विरोध जैसे सभी तथ्यों का ज्ञान आवश्यक रूप से दिया जाना चाहिए ।
वन और वन्य जीवन संरक्षण
भारत में प्रकृति की पूजा सदियों से चला आ रहा परम्परागत विश्वास है ।
इस विश्वास का उद्देश्य प्रकृति के स्वरूप की रक्षा करना है ।
विभिन्न समुदाय कुछ विशेष वृक्षों की पूजा करते हैं और प्राचीनकाल से उनका संरक्षण भी करते चले आ रहे हैं ।
उदाहरण के लिये छोटा नागपुर क्षेत्र में मुंडा और संथाल जनजातियाँ महुआ और कदम्ब के पेड़ों की पूजा करती हैं ।
उड़ीसा और बिहार की जनजातियाँ विवाह के दौरान इमली और आम की पूजा करती हैं ।
बहुत - से लोग पीपल और बरगद के वृक्षों की पूजा आज भी करते हैं ।
भारतीय समाज में अनेक संस्कृतियाँ समाई हुई हैं और प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति और इसकी कृतियों को संरक्षित करने के अपने - अपने पारम्परिक तरीके है ।
सामान्य तौर पर झरनों, तालाबों, पहाड़ी चोटियों, पेड़ों और पशुओं - पक्षियों को पवित्र मानकर, उनका संरक्षण किया जाता है ।
भारत के अनेक धार्मिक नगरों के मन्दिरों के आस - पास बन्दर और लंगूर पाए जाते हैं ।
उपासक उन्हें खिलाते - पिलाते हैं और मन्दिर के भक्तों में गिनते हैं ।
राजस्थान में 'विश्नोई' गाँवों के आस - पास आप काले हिरण, चिंकारा, नीलगाय और मोरों के झुंड देख सकते है ।
जो यहाँ के समुदाय के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं और कोई उनको नुकसान नहीं पहुँचाता ।
महाराष्ट्र में 'मोरे' समुदाय के लोग मोर एवं चूहों की सुरक्षा में आज भी पूर्ण विश्वास रखते हैं ।
देवी - देवताओं के वाहन के रूप में लोग इनकी पूजा करते हैं ।
इस प्रकार भारतीय समाज पर्यावरणीय सन्तुलन बनाए रखने के लिए प्राचीन काल से ही पेड़ - पौधों एवं पशु - पक्षियों के संरक्षण के प्रति जागरूक रहा है ।
वन एवं पशु संरक्षण के प्रति भारत सरकार भी पूर्ण सतर्क है ।
भारत सरकार द्वारा इस कार्य के लिए एक राष्ट्रीय नीति का निर्धारण कर दिया है ।
इस नीति में आवश्यकतानुसार समय - समय पर संशोधन किये जाते रहे हैं और राज्य सरकारों से भी यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह इस नीति का कठोरता से पालन करें ।
वन संरक्षण अधिनियम क्या है?
भारतीय वन्यजीव ( रक्षण ) अधिनियम 1972 में लागू किया गया जिसमें वन के जीवों के रहने, संरक्षण के लिए अनेक नियम बनाए गए हैं ।
सारे भारत में रक्षित वन्य जीवों की जातियों की सूची प्रकाशित की गयी है ।
इस कार्यक्रम के अंतर्गत बची हुई संकटग्रस्त जातियों के बचाव हेतु इनके शिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
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भारत में वनों का विकास ( Development of forests in India )
भारत में वनों का विकास (Development of forests in India) |
पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत वनों का विकास ( Development of Forestry in the Five Year Plans )
प्रथम और द्वितीय योजनाओं के अंतर्गत क्रमश: 9 करोड़ और 21 करोड़ रुपये की राशि वन सम्बन्धी कार्यक्रमों पर खर्च की गयी ।
तृतीय योजना में 46 करोड़ रुपया व्यय हुआ ।
चतुर्थ योजना में 89 करोड़ रुपये, पांचवी योजना में 221 करोड़ रुपये, छठी योजना में 750 करोड़ रुपये, सातवीं योजना में 1,959 करोड़ रुपये, आठवीं योजना में 1,659 करोड़ रुपए तथा नौवीं योजना में 3,186 करोड़ रुपए, दसवीं योजना में 5,600 करोड़ रुपए व्यय हुए और ग्यारहवीं योजना में 8,841 करोड़ रुपए व्यय किये गये हैं ।
प्रथम दो योजनाओं में किए गए प्रयत्नों के फलस्वरूप 1951-61 की अवधि में वनों से प्राप्त मुख्य उपज 19 करोड़ रुपये से 49 करोड़ रुपये तक बढ़ी ।
इसी अवधि में गौण उपज में 6.93 से 11.13 करोड़ रुपयों की वृद्धि हुई ।
पुन: वर्गीकरण से सुरक्षित वन क्षेत्र 2.73 लाख वर्ग किलोमीटर से 3,65 लाख वर्ग किलोमीटर हो गया साथ ही पुनर्स्थापित एवं वनीकरण किया गया क्षेत्र 11 हजार वर्ग किलोमीटर से 13 हजार वर्ग किलोमीटर बढ़ गया ।
वनों में लगे व्यक्तियों की संख्या 4 से 50 लाख हो गयी ।
तृतीय योजनाकाल में 64,000 हैक्टेअर भूमि में शीघ्र उगने वाले वृक्ष 2,40 लाख हैक्टेअर में आर्थिक महत्व के वृक्ष लगाये गये ।
2 लाख हैक्टेअर वनों का पुरापन किया गया ।
11 हजार किलोमीटर सड़कों का निर्माण किया गया ।
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विकास के लिए बढ़ती हुई मात्रा में कागज, प्लाईवुड, दियासलाई, आदि की मांग पूरी करने को 4 लाख हैक्टेअर भूमि पर शीघ्र उगने वाले वृक्ष तथा 3.4 लाख हैक्टेअर भूमि पर आर्थिक दृष्टि से लाभदायक वृक्ष ( टीक, सेमल, शीशम ) और ईंधन के लिए 75 हजार हैक्टेअर भूमि में नये वन लगाये जाने थे ।
2 लाख हैक्टेअर भूमि में नये वनों की पुनर्व्यवस्था की जानी थी ।
वन प्रदेशों के समुचित विकास के लिए 16 हजार किलोमीटर लम्बी सड़कों का निर्माण तथा वर्तमान हजार किलोमीटर लम्बी सड़कों की मरम्मत करने तथा लगभग लाख हैक्टेअर भूमि पर पशुओं के लिए चारा पैदा करने की व्यवस्था की गयी ।
पंचम पंचवर्षीय योजना में वनों के कार्यक्रम के अंतर्गत सड़कों, नदियों, नहरों, रेलमार्गों के किनारे तथा बाढ़ के नियन्त्रण हेतु शीघ्र उगने वाले वृक्ष 8.6 लाख हैक्टेअर पर और औद्योगिक एवं व्यापारिक उपयोग के वृक्ष 16 लाख हैक्टेअर पर लगाये जाने तथा वन क्षेत्रों में 60 हजार किलोमीटर लम्बी सड़कों का निर्माण किया जाने का प्रावधान था ।
भूमि क्षरण को रोकने के लिए नदी घाटियों, पहाड़ी क्षेत्रों, बीहड़ भूमियों और परती भूमि में आग फैलने से रोकने के लिए वृक्षारोपण किया गया ।
मरुभूमियों पर नियन्त्रण करने के लिए नये वनों की पट्टियाँ लगाना तय किया गया ।
प्रत्येक राज्य में कम - से - कम दो अभयाराण्य स्थापित करने हेतु प्रारम्भिक निर्णय किये गये ।
छठी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत वनों में अधिक व्यक्तियों को रोजगार दिया गया ।
वन उत्पादों की मांग को पूरा करने के लिए उनके उत्पादन में वृद्धि करने, वन प्रशिक्षण की व्यवस्था करने के लिए छठी योजना में वनों के विकास के लिए कुल 750 करोड़ रुपये व्यय किये गये । इस अवधि में 2.15 लाख हैक्टेअर भूमि में वन लगाए गए ।
इस योजना में Forest Conservation Act, 1980 पारित किया गया जिसका उद्देश्य वन भूमि के अन्य कार्यों में लिए जाने पर नियन्त्रण लगाना था ।
समस्त छठी योजना में 928 करोड़ वृक्षों के पौधे लगाये गये ।
सातर्वी पंचवर्षीय योजना ( 1985-90 ) इस योजना की अवधि में 50 लाख हैक्टेअर भूमि पर वन लगाने का लक्ष्य रखा गया ।
इसके अतिरिक्त वनवासियों ( Tribal people ) के विकास, वन्यजीवों ( Wildlife ) की सुरक्षा, लकड़ी एवं अन्य वन उत्पादनों की किस्म में सुधार, वन प्रशासन में सुधार एवं वन प्रशिक्षण में सुधार के लिये व्यापक कार्यक्रम इस योजना में अपनाये गए ।
सातवीं योजना में कुल 1,959 करोड़ रुपये वन विकास पर व्यय किये गये हैं ।
आठवीं योजना ( 199-97 ) में वनों पर 4,082 करोड़ रुपये व्यय करने का प्रावधान था, लेकिन वास्तविक व्यय 1,659 करोड़ रुपये का हुआ है ।
इस योजना काल में पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण व जैव मण्डल सुधारने के लिए वनों का संरक्षण अनिवार्य माना गया ।
अत: कई प्रकार के विशिष्ट कार्यक्रम लागू किए गए । इसमें वृक्षारोपण व जल संसाधनों का संरक्षण करना ।
देश को कृषि जलवायु के अनुसार विभाजित करके तदनुरूप वनस्पति व वृक्षों के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी करना एवं निजी क्षेत्र द्वारा पर्यावरण विकास के अंतर्गत विशेष क्षेत्रों में वन विस्तार कार्यक्रम लागू करना तथा पूर्व के अभयारण्यों की संख्या जिलेवार बढ़ाना और नगरों व महानगरों के निकट लघु क्षेत्रीय वन संरक्षण क्षेत्र और अभयारण्यों का विकास जैसे कार्यक्रम सभी स्तरों पर लागू किए गए ।
नौवीं योजना ( 1997-2002 ) में पर्यावरण एवं वन विकास पर कुल 3,186 करोड़ रुपए व्यय किए गए ।
इस योजना में सामाजिक वानिकी एवं कृषि वानिकी के कार्यक्रम विशेष रूप से आगे बढ़ाये गये तथा वन अनुसंधान पर बल दिया गया ।
दसवीं योजना ( 2002-07 ) में 33 प्रतिशत भूमि को वनों अथवा वृक्षों से आच्छादित करने के राष्ट्रीय लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत को हरा - भरा बनाने की एक योजना करने का प्रस्ताव था ।
इसे अंतर्गत 12.5 लाख हेक्टेअर से अधिक अवक्रमित गैर - वन भूमि पर वृक्षारोपण तथा 2 लाख हैक्टेअर से अधिक भूमि पर कृषि वानिकी या फार्म वानिकी के अंतर्गत प्रति वर्ष वृक्ष लगाना सम्मिलित था ।
इस प्रकार प्रति वर्ष ( 14.5 ) लाख हैक्टेअर भूमि पर वृक्ष लागने की योजना थी ।
दसवीं योजना के दौरान कृषि - वानिकी को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कृषि - पारिस्थितिकी क्षेत्रों के लिए जलसम्भर दृष्टिकोण और कृषि - वानिकी अनुसन्धान में समन्वय की आवश्यकता पर बल दिया गया ।
इस योजना में 5,600 करोड़ रुपए वन एवं पर्यावरण प्रबन्धन पर व्यय किये गये ।
ग्यारहवीं योजना ( 2007-12 ) -के अन्त तक देश के भौगोलिक क्षेत्र के 33 प्रतिशत भाग को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया है ।
इन लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु एवं वानिकी क्षेत्र की समस्याओं के सम्बन्ध में निम्नलिखित नीतियों को प्रस्तावित किया गया है - समानता, कुशलता तथा सशक्तिकरण सतत् वन विकास के आधारभूत साधन हैं ।
क्षय हो चुके वनों को दोबारा उत्पन्न करने के लिये 'वन प्रबन्धन का तीव्रीकरण' की प्रक्रिया को अपनाने पर इस योजना में विशेष ध्यान दिया गया है ।
इस योजना वन संरक्षण एवं पर्यावरण सुधार हेतु 8,841 करोड़ रुपए व्यय करने का प्रावाधान किया गया था ।