समस्याग्रस्त भूमियों का सुधार एवं उनमें फसल उत्पादन
भारत में प्राय: निम्नलिखित प्रकार की समस्याग्रस्त भूमियां पाई जाती है, जिनका सुधार करके हम उनमें फसल उत्पादन कर सकते है, एवं उन्हें खेती योग्य बना सकत है। ओर खेती कर सकते है।
1. अम्लीय भूमि
समस्याग्रस्त भूमियों के नाम
1. अम्लीय भूमि
2. लवणीय भूमि
3. क्षारीय भूमि
4. जलाक्रान्त भूमि
5. शुष्क भूमि
1. अम्लीय भूमि किसे कहते है? Acidic Soils in hindi
हमारे देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में से लगभग 100 - 6 मिलियन हैक्टेयर अम्लीय भूमि (acidic soil in hindi) है ।
यह अम्लीय भूमि प्रमुख रूप से देश के विभिन्न राज्यों जैसे आसाम, काश्मीर, उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, केरल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु तथा अन्य स्तर पूर्वी राज्यों में पाई जाती है ।
इन क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों की उपज अम्लता के कारण कम होती है । इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग गरीब होते हैं ।
अतः इनका आर्थिक और सामाजिक स्तर सुधारने के लिए विशेष देख - रेख की आवश्यकता होती है ।
यह अम्लीय भूमि प्रमुख रूप से देश के विभिन्न राज्यों जैसे आसाम, काश्मीर, उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, केरल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु तथा अन्य स्तर पूर्वी राज्यों में पाई जाती है ।
इन क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों की उपज अम्लता के कारण कम होती है । इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग गरीब होते हैं ।
अतः इनका आर्थिक और सामाजिक स्तर सुधारने के लिए विशेष देख - रेख की आवश्यकता होती है ।
ऐसी भूमियाँ जिनका pH मान 7 से कम होता है, उन्हें अम्लीय भूमियाँ (Acidic Soils in hindi) कहते हैं ।
भूमि की pH 7 से जितनी कम होती रहती है, उतनी ही उसमें अम्लता बढ़ती जाती है । अम्लीय भूमियों में हाइड्रोजन आयन ( Ht ) अधिक मात्रा में पाए जाते हैं ।
भूमि में अम्लता बढ़ने पर हाइड्रोजन आयनों की संख्या भी बढ़ती है । भूमि का pH मान सामान्य से कम होने पर उसमें कृषि करना कठिन हो जाता है । इनमें कार्बनिक पदार्थ अधिक मात्रा में पाया जाता है ।
प्रायः अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों की भूमियाँ अम्लीय हो जाती हैं । इन भूमियों में सोडियम आयनों की कमी हो जाती है और उनके स्थान पर हाइड्रोजन आयन अधिक मात्रा में आ जाते हैं ।
भूमि में अम्लता बढ़ने पर हाइड्रोजन आयनों की संख्या भी बढ़ती है । भूमि का pH मान सामान्य से कम होने पर उसमें कृषि करना कठिन हो जाता है । इनमें कार्बनिक पदार्थ अधिक मात्रा में पाया जाता है ।
प्रायः अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों की भूमियाँ अम्लीय हो जाती हैं । इन भूमियों में सोडियम आयनों की कमी हो जाती है और उनके स्थान पर हाइड्रोजन आयन अधिक मात्रा में आ जाते हैं ।
अम्लीय भूमि (Acidic soil in hindi) |
अम्लीय भूमियों की विशेषताएँ
1. इन भूमियों का pH मान 7 से कम होता है ।
2. ये भूमियाँ नम क्षेत्रों में पाई जाती है ।
3. अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में नमी अधिक होने के कारण भूमि अम्लीय हो जाती है ।
4. इन भूमियों में हाइड्रोजन आयनों ( H + ) की अधितकता होती है तथा OH - आयन कम मात्रा में पाए जाते हैं ।
5. इन भूमियों से कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम तथा सोडियम आयन विस्थापित हो जाते हैं ।
6 . अधिक अम्लीय भूमियों में सल्फर व बोरोन तत्वों की कमी पाई जाती है ।
7. इन भूमियों में एल्यूमीनियम आयरन मैंग्नीज जैसे तत्वों की घलनशीलता बढ जाती है जो फसलों की वृद्धि के लिए हानिकारक होती है ।
8. इन भूमियों में कॉपर और जिंक का विषैला प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है ।
9. चूने के प्रयोग से इन भूमियों में सुधार होता है ।
10. अम्लीय उर्वरकों के प्रयोग से भूमि में हाइड्रोजन आयनों ( H + ) की संख्या बढ़ती जाती है ।
11. जीवांश पदार्थ की अधिकता के कारण भी भूमि अम्लीय हो जाती है ।
विभिन्न विशेषताओं के होते हए इन भूमियों में पोषक तत्वों की उपलब्धता, सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता, भूमि संरचना, पौधे की वृद्धि तथा विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे उपज में भारी गिरावट आती है ।
अम्लीय भूमियों का सुधार एवं उनमें फसल उत्पादन
अम्लीय भूमियों में फसल उगाने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है -
1. क्षारीय उर्वरकों का प्रयोग ( Application of basic fertilizers ) -
अम्लीय भूमियों में क्षारीय उर्वरकों का प्रयोग करने से भूमि की अम्लता कम होने लगती है और उसमें विभिन्न प्रकार की फसलें उगाना सम्भव हो जाता है । क्षारीय उर्वरकों के प्रयोग से भूमि उदासीन हो जाती है ।
उदाहरण - सोडियम नाइट्रेट NaNO , तथा कैल्शियम नाइट्रेट Ca
2. उत्तम जल विकास ( Proper drainage ) -
यह भूमियाँ अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाने के कारण इनमें अतिरिक्त जल एकत्र हो जाता है । इसी कारण से इन भूमियों का निर्माण भी होता है । अतः इस अतिरिक्त जल को खेत से बाहर निकालने की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए ।
3. पोटाश का प्रयोग ( Use of Potash ) -
अम्लीय भूमियों से पोटेशियम तत्व विस्थापित हो जाने के कारण इस तत्व का भूमि में अभाव हो जाता है । अतः पोटेशियम क्लोराइड या पौटेशियम सल्फेट आदि पोटाश युक्त उर्वरकों का प्रयोग कर हम फसलों की अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं ।
4. समय का प्रयोग ( Use of time ) -
अम्लीय भूमि में चूने के प्रयोग से भूमि का pH मान बढ़ता है । इनके प्रयोग से पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है, भूमि की भौतिक अवस्था में सुधार होता है व दलहनी फसलों में सूक्ष्म - जीवाणु अपना कार्य भली - भाँति करने लगते हैं ।
अत: भू में चूने के प्रयोग से भूमि सुधर जाती है और उसमें फसल उगाना सम्भव हो जाता है ।
अत: भू में चूने के प्रयोग से भूमि सुधर जाती है और उसमें फसल उगाना सम्भव हो जाता है ।
5. अम्लीय फसलों का चुनाव ( Selection of acid tolerant crops ) -
इन भूमियों में ऐसी फसलों को उगाना चाहिए जो अम्लता को सहन कर लेती है । विभिन्न फसलों की अम्लता सहन करने की क्षमता अलग - अलग होती है ।
उदाहरण - सक्का , जई , ज्वार , तम्बाक . जौं , कपास तथा लोबिया आदि फसलें अधिक अम्लता को भी सहन कर लेती हैं ।
उदाहरण - सक्का , जई , ज्वार , तम्बाक . जौं , कपास तथा लोबिया आदि फसलें अधिक अम्लता को भी सहन कर लेती हैं ।
भारत में इस समय लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणों की अधिकता से प्रभावित हो चुकी है । इन भूमियों की ऊपरी सतह पर घुलनशील लवण पाए जाते हैं ।
घुलनशील लवणों की उपस्थिति के कारण इन भूमियों पर बीजों के उगने से लेकर पौधों की वृद्धि तक सभी अवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे पौधा या फसल पूर्णत : नष्ट हो सकते हैं ।
ऐसो भूमि की उत्पादकता लवणों की अधिकता के कारण समाप्त हो जाती है ।
इसीलिए इस भूमियों को अनुत्पादक भूमि कहा जाता है । लवणों से प्रभावित यह भूमि देश की विभिन्न राज्यों
इन भूमियों में घुलनशील लवणों की सान्द्रता व विनिमय सोडियम महत्वपूर्ण होते हैं ।
घुलनशील लवणों की उपस्थिति के कारण इन भूमियों पर बीजों के उगने से लेकर पौधों की वृद्धि तक सभी अवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे पौधा या फसल पूर्णत : नष्ट हो सकते हैं ।
ऐसो भूमि की उत्पादकता लवणों की अधिकता के कारण समाप्त हो जाती है ।
इसीलिए इस भूमियों को अनुत्पादक भूमि कहा जाता है । लवणों से प्रभावित यह भूमि देश की विभिन्न राज्यों
जैसे - उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिमी बंगाल, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, केरल, बिहार और तमिलनाडु आदि में फैली हुई है ।
उत्तर प्रदेश में लवण प्रभावित भूमि मैनपुरी, अलीगढ़, एटा, फरूखाबाद, इटावा, कानपुर, इलाहाबाद व फतेहपुर आदि जिलों में पाई जाती है ।
उत्तर प्रदेश में लवण प्रभावित भूमि मैनपुरी, अलीगढ़, एटा, फरूखाबाद, इटावा, कानपुर, इलाहाबाद व फतेहपुर आदि जिलों में पाई जाती है ।
इन भूमियों में घुलनशील लवणों की सान्द्रता व विनिमय सोडियम महत्वपूर्ण होते हैं ।
ऐसी भूमियाँ जिनका pH मान7 से अधिक होता है वे लवणीय व क्षारीय भमियाँ (saline and alkaline soils) कहलाती है ।
भूमि का pH मान जितना बढ़ता जाता है, भूमि में क्षारीयता बढ़ती जाती है । इन भूमियों में OH आयनों की अधिकता होती है तथा H + आयनों का अभाव होता है । ये भूमियाँ प्रायः शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है ।
लवणीय व क्षारीय भूमियों की विशेषताएँ
लवणीय व क्षारीय, भूमियों की विशेषताओं के आधार पर इनको तीन भागों में बाँटा गया है -
इन भूमियों का pH मान 7 से अधिक व 8 . 5 से कम होता है । विनिमय सोडियम प्रतिशत की मात्रा 15 से कम होती है । भूमियों की विद्युत चालकता 4 mmhos / cm या इससे अधिक होती है ।
इन भूमियों में उगने वाले पौधों के जड़ क्षेत्र में घुलनशील लवणों की सांद्रता में विषैला प्रभाव होता है । इनको सफेद क्षारीय भूमि ( White alkali soils ) भी कहते हैं ।
2. लवणीय भूमियों की विशेषताएं
( i ) इन भूमियों का pH मान 8 . 5 से कम होता है ।
( ii ) इनकी विनिमय सोडियम प्रतिशत की मात्रा 15 से अधिक होती है ।
( iii ) इनकी विद्युत चालकता 4 manhus / cm से अधिक होती है ।
3. क्षारीय भूमियों की विशेषताएं
( i ) इन भूमियों का pH मान 8 . 5 से अधिक होता है ।
( ii ) इनको विनिमय सोडियम प्रतिशत मात्रा 15 से अधिक होती है ।
( ii ) इनको विनिमय सोडियम प्रतिशत मात्रा 15 से अधिक होती है ।
( ii ) इनकी विद्युत चालकता 4mmhos / cm से कम होती है ।
( iv ) इनको काली धारीय भूमियाँ ( Black alkaline soils ) भी कहा जाता है ।
( v ) इन भूमियों की ऊपरी सतह पर काले रंग की पपड़ी पाई जाती है ।
लवणीय व क्षारीय भूमियों का सुधार एवं उनमें फसल उत्पादन
लवणीय व क्षारीय भूमियों को सुधारने के लिए विभिन्न विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं । इन विधियों में भौतिक विधियाँ , कार्बनिक खादों का प्रयोग, मृदा सूधारकों का प्रयोग, जैविक विधि तथा कृषि विधियाँ अपनाई जाती हैं ।
लवणीय व क्षारीय भूमियों के उचित प्रबन्ध एवं सफल फसलोत्पादन के लिए अपनाई जाने वाली क्रियाओं को दो भागों में बाँटा गया है -
लवणीय व क्षारीय भूमियों के उचित प्रबन्ध एवं सफल फसलोत्पादन के लिए अपनाई जाने वाली क्रियाओं को दो भागों में बाँटा गया है -
( A ) जल प्रबन्ध ( Water Management )
( B ) भूमि व फसल ( Soil and Crop Management )
( A ) जल प्रबन्ध ( Water Management ) -
1. क्षारीय भूमियों में जल को एकत्रित करने से लवण भूमि की ऊपरी सतह से रिस - रिस कर कम होने लगते हैं और उनका विषेलापन घट जाता है ।
2. ड्रिप विधि से लवणीय भूमियों में सिंचाई करने पर पौधों को कम हानि होती है ।
3. अच्छी गुणवत्ता वाला जल प्रयोग करने से भूमि में लवणता कम हो जाती है । इसके लिए सिंचाई जल की जाँच कराना आवश्यक है ।
( B ) भूमि व फसल प्रबन्ध ( Soil and Crop Management ) -
1. लवण सहन करने वाली फसलों को उगाने के लिए उपयुक्त चुनाव करना चाहिए ।
2. पौर्षों की संख्या प्रति इकाई क्षेत्रफल में बढ़ा देनी चाहिए ।
3. भूमियों में अम्लीय उर्वरकों जैसे अमोनियम सल्फेट का प्रयोग करना चाहिए ।
4. लवण सहने वाली फसलों को फसल चक्रों में सम्मिलित करना चाहिए ।
5. नाइट्रोजनयुकत उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए ।
6. अधिक लवण सहनशील फसलों में जों, गन्ना व कपास जबकि कम लवण सहनशील फसलों में धान, मक्का, ज्वार, बरसीम व गेहूँ आदि हैं । कुछ ऐसी फसलें भी हैं जो लवणों को सहन नहीं कर पाती ।
जैसे - मटर , लोबिया , चना , मूंग व मूंगफली आदि ।
जैसे - मटर , लोबिया , चना , मूंग व मूंगफली आदि ।
जलाक्रान्त भूमियाँ किसे कहते है?Waterlogged Soil in hindi
स्थायी कृषि विकास का मूल उद्देश्य फसल उत्पादन को स्थायी रूप से बढ़ाना है । कृषिकृत भूमियों में अधिक वर्षा के कारण, अत्याधिक सिंचाई , प्राकृतिक जल निकास का अभाव, नदियों में बाढ़ व विभिन्न अन्य कारणों से जल भर जाता है ।
यह जल खेत में उगी हुई फसल के जड़ क्षेत्र में वायु संचार में अवरोध उत्पन्न करता है, भूमि के ताप पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जिससे भूमि में की जाने वाली कृषण क्रियाओं में विलम्ब होता है ।
इस अतिरिक्त जल से भूमि का जल स्तर कभी बढ़कर पौधों के जड़ क्षेत्र तक आ जाता है, भूमि की संरचना बिगड़ने लगती है । भूमि में लगातार पानी खड़ा रहने से भूमि दलदली ( Swampy ) बन जाती है ।
इस अतिरिक्त जल के भूमि पर लगातार खड़ा रहने से भूमि में उगी हुई फसल के जड़ क्षेत्र तक जल स्तर का आ जाना पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, इसे जलाक्रान्त भूमियाँ ( Waterlogged Soils ) कहते हैं ।
यह जल खेत में उगी हुई फसल के जड़ क्षेत्र में वायु संचार में अवरोध उत्पन्न करता है, भूमि के ताप पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जिससे भूमि में की जाने वाली कृषण क्रियाओं में विलम्ब होता है ।
इस अतिरिक्त जल से भूमि का जल स्तर कभी बढ़कर पौधों के जड़ क्षेत्र तक आ जाता है, भूमि की संरचना बिगड़ने लगती है । भूमि में लगातार पानी खड़ा रहने से भूमि दलदली ( Swampy ) बन जाती है ।
इस अतिरिक्त जल के भूमि पर लगातार खड़ा रहने से भूमि में उगी हुई फसल के जड़ क्षेत्र तक जल स्तर का आ जाना पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, इसे जलाक्रान्त भूमियाँ ( Waterlogged Soils ) कहते हैं ।
इन परिस्थितियों में भूमि में फसलों का उगाना असम्भव हो जाता है । अत: ऐसे क्षेत्रों में स्थायी रूप से जलाक्रान्ति अथवा जलमग्नता की समस्या उत्पन्न हो जाती है ।
इन क्षेत्रों को जलाक्रान्त क्षेत्र ( waterlogged area ) या जलमग्न क्षेत्र कहा जाता है और इन क्षेत्रों की भूमियों को जलाक्रान्त भूमि ( Waterlogged soils ) कहते हैं ।
जलाक्रान्त भूमियों की विशेषताएँ
जलाक्रान्त भूमियों में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं -
1. इन भूमियों में वायु की कमी हो जाती है जिससे पौधों की जड़ों में वायु संचार बन्द हो जाता है और पौधे की वृद्धि रुक जाती है ।
2. वायु की कमी से पौधों में बहुत सी बीमारियों का प्रकोप होने लगता है । जैसे - गन्ने का लाल सड़न रोग ।
3. इन भूमियों का तापमान सामान्य से कम हो जाता है जिससे अधिक समय लगने के कारण बीजों के अंकुरण में विलम्ब होता है ।
4. भूमि की ऊपरी सतह पर बहुत से हानिकारक व घुलनशील लवण एकत्रित हान लगते हैं ।
5. इन भूमियों पर विभिन्न प्रकार की जंगली वनस्पति उगने लगती है जिससे बीमारण फैलने का खतरा पैदा हो जाता है ।
उपरोक्त कारणों से पोषक तत्वों की अनु उपलब्धता व लीचिंग की क्रिया में पोषक तत्वों का ह्रास आदि कारणों से भूमि की उत्पादक क्षमता में कमी आ जाती है ।
जलाक्रान्त भूमियों का सुधार एवं उनमें फसल उत्पादन
जलाक्रान्त भूमियों में उगाने के लिए ऐसी फसल का चुनाव करना चाहिए जो जल की अधिकता को सहन कर लेती हैं ।
जैसे - धान।
इन भूमियों में उगाने के लिए उपयुक्त जाति के चुनाव के साथ - साथ उपयुक्त समय पर फसलों की बुवाई व रौपाई तथा बुवाई की विधि व बीज दर में सामजस्य स्थापित करके कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है ।
जैसे - धान।
इन भूमियों में उगाने के लिए उपयुक्त जाति के चुनाव के साथ - साथ उपयुक्त समय पर फसलों की बुवाई व रौपाई तथा बुवाई की विधि व बीज दर में सामजस्य स्थापित करके कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है ।
भारत का कुल कृषि कृत क्षेत्रफल 143 मिलियन हैक्टेयर है । जिसके लगभग 70 % भाग पर शुष्क खेती (dry farming in hindi) की जाती है ।
इन क्षेत्रों से देश के कुल अन्न उत्पादन का एक बड़ा भाग प्राप्त होता है ।
हमारे देश में सिंचाई के संसाधनों का बहुतायत से प्रयोग होते हुए भी कुल कृषिकृत क्षेत्र का लगभग आधा भाग वर्षा पर आश्रित रहता है । जिस पर सिंचाई जल का अभाव बना रहता है । इसका प्रमुख कारण मानसून की अनिश्चितता का होना है ।
जिसमें वर्षा की मात्रा, प्रचण्डता और उसका वितरण, मानसून के जल्दी व देरी से आने जाने की सम्भावना और लम्बी अवधि तक फसल के उगने की अवधि में उसका सूखा रह जाना आदि सम्मिलित हैं ।
इसके लिए कुछ भूमि सम्बन्धी कारक जैसे भूमि में नमी की कमी भूमि का कम उर्वर होना तथा भमि कटाव आदि भी उत्तरदायी होते हैं ।
शुष्क खेती फसल उत्पादन की एक ऐसी पद्धति है जिसमें कम व असामयिक वर्षा होने पर फसल उत्पादन हेतु भूमि में अधिक नमी एकत्रित की जाती है । इस पद्धति में फसलें बिना सिंचाई के उगाई जाती हैं ।
इन क्षेत्रों से देश के कुल अन्न उत्पादन का एक बड़ा भाग प्राप्त होता है ।
हमारे देश में सिंचाई के संसाधनों का बहुतायत से प्रयोग होते हुए भी कुल कृषिकृत क्षेत्र का लगभग आधा भाग वर्षा पर आश्रित रहता है । जिस पर सिंचाई जल का अभाव बना रहता है । इसका प्रमुख कारण मानसून की अनिश्चितता का होना है ।
जिसमें वर्षा की मात्रा, प्रचण्डता और उसका वितरण, मानसून के जल्दी व देरी से आने जाने की सम्भावना और लम्बी अवधि तक फसल के उगने की अवधि में उसका सूखा रह जाना आदि सम्मिलित हैं ।
इसके लिए कुछ भूमि सम्बन्धी कारक जैसे भूमि में नमी की कमी भूमि का कम उर्वर होना तथा भमि कटाव आदि भी उत्तरदायी होते हैं ।
वर्षा आश्रित इन क्षेत्रों में 400 - 1000 मिमी . तक वार्षिक वर्षा होती है तथा सिंचाई की सुविधाओं का अभाव होता है । जिससे फसलोत्पादन पर प्रतिकल प्रभाव पड़ता है ।
इन क्षेत्रों को शुष्क क्षेत्र ( Dry area ) कहा जाता है और इन क्षेत्रों की भमि को शुष्क भूमि ( Dry land ) कहते हैं ।
इन क्षेत्रों को शुष्क क्षेत्र ( Dry area ) कहा जाता है और इन क्षेत्रों की भमि को शुष्क भूमि ( Dry land ) कहते हैं ।
शुष्क खेती फसल उत्पादन की एक ऐसी पद्धति है जिसमें कम व असामयिक वर्षा होने पर फसल उत्पादन हेतु भूमि में अधिक नमी एकत्रित की जाती है । इस पद्धति में फसलें बिना सिंचाई के उगाई जाती हैं ।
शुष्क भूमियों की विशेषताएँ
1. इन क्षेत्रों में 400 - 1000 मिमी. तक वार्षिक वर्षा होती है । अधिकतर वर्षा पर्व व पश्चिम से उठने वाली मानसूनी हवाओं से होती है ।
2. इन क्षेत्रों में मई - जून के महीनों में तापमान लगभग 49°C तक पहँच जाता है और इनमें गर्म हवाएँ चलने लगती हैं ।
3. इन क्षेत्रों की भूमि बलुई होने के कारण जल के वाष्पीकरण की क्रिया की गति तेज हो जाती है और भूमियाँ सूख जाती हैं ।
4. पानी की कमी के कारण इन क्षेत्रों में कम पानी चाहने वाली फसलों को ही उगाया जाता है ।
5. इन क्षेत्रों में तेज गर्म हवाएँ चलने के कारण मृदा और भी अधिक शुष्क हो जाती है ।
शुष्क भूमियों का सुधार एवं उनमें फसल उत्पादन
शुष्क भूमि में सफल फसल उत्पादन वहाँ पर कुशल जल प्रबन्ध के ऊपर निर्भर करता है । उन्नत कृषि विधियाँ अपनाकर इन क्षेत्रों में फसलों की उपज को बढ़ाया जा सकता है ।
इन क्षेत्रों में जल संरक्षण करके निम्न विधियों द्वारा फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है -
1. ग्रीष्मकालीन जुताई करने से फसल की उपज बढ़ जाती है ।
2. भू - परिष्करण क्रियाओं से पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है ।
3. खेत की जल शोषण क्षमता बढ़ाने के लिए खेत का समतल होना अनिवार्य है ।
4. फसलों को मेंड पर बोने पर अतिरिक्त जल के प्रभाव से बचा जा सकता है ।
5. भूमि की कठोर सतह को तोड़कर उसकी जल प्रवेश क्षमता बढ़ाई जा सकती है ।
जल का क्षमताशाली प्रयोग करने पर शुष्क क्षेत्रों में फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है । इसमें शीघ्र बढ़ने वाली फसलों का चुनाव, गहरी जड़ वाली फसलों का चुनाव तथा फसलों की ऐसी किस्में जो शुष्क क्षेत्रों में उग सकती हैं, उनका चुनाव करना चाहिए ।
इन क्षेत्रों में मिश्रित खेती की काफी प्रबल सम्भावनाएँ हैं । इन क्षेत्रों में समय पर बुवाई अवश्य की जानी चाहिए । अधिक अन्तरण रखते हुए पंक्तियों में बुवाई करनी चाहिए ।
इन क्षेत्रों में मिश्रित खेती की काफी प्रबल सम्भावनाएँ हैं । इन क्षेत्रों में समय पर बुवाई अवश्य की जानी चाहिए । अधिक अन्तरण रखते हुए पंक्तियों में बुवाई करनी चाहिए ।
शुष्क क्षेत्रों में संतुलित मात्रा में उर्वरकों के प्रयोग, खरपतवार नियन्त्रण तथा कीड़ों व बीमारियों की रोकथाम करके भी फसलों के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है ।