बागवानी फसलें क्या है | बागवानी फसलों का वर्गीकरण | horticulture in hindi

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बागवानी फसलें क्या है | बागवानी फसलों का वर्गीकरण | horticulture in hindi 


उद्यान में पौधों को उगाना या खेती करना एवं उनके बारे में अध्ययन करना ही बागवानी कहलाता है । बागवानी कला एवं विज्ञान दोनों पर आधारित कृषि हैं । 

जो फसलें मुख्य रूप से बागवानी में उगाई जाती है उन्हें ही बागवानी फसलें (horticulture crops in hindi)कहा जाता है । जैसे - आम, चाय, अंगुर इत्यादि ।


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बागवानी फसलें क्या है? 

बागवानी फसलें - "वे सभी फसलें जो उद्यान के अंतर्गत उगाई जाती हैं उन्हें ही बागवानी फसलें कहा जाता हैं , इन्हें बागानी फसलें  फसलों या उद्यान फसलों के नाम से भी जाना जाता हैं ।"

बागवानी फसलों के उदाहरण -

  • फल वाली फसलें - आम, केले, अनार आदि की खेती।
  • सब्जि वाली फसलें - लौकी, कद्दू, आलू, आदि की खेती। 
  • फूल वाली फसलें - सूरजमुखी, गुलाब आदि की खेती।
  • बागानी फसलें - कॉफी, चाय, रबर आदि


बागवानी फसलों का वर्गीकरण कीजिए?

पौधे के उगने व वृद्धि करने के समय के अनुसार एवं कुछ आवश्यक गुणों को ध्यान में रखकर ही उद्यान कृषि को निम्न भागों में वर्गीकृत किया गया है -

बागवानी फसलों का वर्गीकरण -

  • एक वर्षीय पौधे ( Annual Plants ) - ऐसे पौधे जो अपना समस्त जीवन एक मौसम में पूर्ण कर लेते हैं, इसके अन्दर सम्मलित किये गये हैं । इनके समस्त जीवन का समय 3 से 6 महीने तक का हो सकता है । एक वर्षीय पौधों के उदाहरण - मक्का, टिण्डा, टमाटर जीनियाँ आदि ।
  • द्विवर्षीय पौधों ( Biennial plants ) - इसके अन्दर ऐसे पौधे सम्मलित हैं जो एक मौसम में अपनी वृद्धि करते हैं तथा दूसरे मौसम में फलते - फूलते व बीज बनाते हैं । द्विवर्षीय पौधों के उदाहरण - गाजर मूली, पात गोभी, स्केविओसा आदि । इनके जीवन का समय 6-9 महीने होता है ।
  • हरवेसियस/बहुवर्षीय पौधे ( Herbaceous Perennial Plants ) - ऐसे पौधे जो अपना जीवन एक वर्ष से अधिक समय तक रखते हैं तथा मुलायम स्वभाव के होते हैं । हरवेसियस/बहुवर्षीय पौधों के उदाहरण - बहुवर्षीय गुलदावदी (perennial chry-santhemum) सोलीडेगो (solidago), जखैरा (gerbera) इत्यादि ।
  • काष्ठित बहवर्षीय पौधे ( Woody perennial plants ) - जो पौधे बहुवर्षीय होते हैं तथा उनकी लकड़ी काफी सख्त होती है । काष्ठित बहवर्षीय पौधों के उदाहरण - समस्त फल एवं फूल वाले पौधे इनको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - बड़े पेड़ (tall trees), छोटे पौधे (shrubs) या झाड़ी आदि ।
  • चढ़ने वाले बहुवर्षीय पौधे ( Climbing perennial plants or climbers ) - इसके अन्दर सब्जी फल तथा फूल वाले पौधों की समस्त बेलें सम्मलित हैं । चढ़ने वाले बहुवर्षीय पौधे के उदाहरण - सेम, रगून कीपर, अंगूर इत्यादि ।

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बागवानी फसलों के लिए उचित मृदा एवं जलवायु

हमारे देश में विभिन्न प्रकार की मिट्टियां एवं जलवायु उपलब्ध है जहां पर लगभग सभी प्रकार के फल देश के किसी ने किसी भाग में पैदा किए जा सकते हैं ।

सफल फलों उत्पादन के लिए मिट्टी क्षारीय तथा अधिक अम्लीय ना होकर उदासीन प्रकृति की होनी चाहिए ।

हमारे यहां अधिकतर दोमट या गहरी दोमट मिट्टी पाई जाती है जिसमें फास्फोरस तथा पोटेशियम प्रचुर मात्रा में पाया जाता है केवल नाइट्रोजन की अधिक आवश्यक होती है जो कि खाद एवं उर्वरक द्वारा पूर्ण कर दी जाती है ।

अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे यहां की मिट्टी और जलवायु फल उत्पादन के लिए सभी प्रकार से उपयुक्त समझी जा सकती है ।


बागवानी फसलों के लिए उचित मृदा| soil for horticultural crops in hindi 

भूमि खनिज तत्व एवं पानी का भंडार ग्रह है और यही से पौधे इनका उपयोग करते हैं तथा साथ ही साथ भूमि पौधों की जड़ों का घर है जिसमें जड़े फेलकर खनिज तत्व एवं पानी का अवशोषण करती है इस प्रकार भूमि के भौतिक एवं रासायनिक संगठन का पौधों उत्पादन में विशेष महत्व है ।

भूमि के रासायनिक संगठन को उर्वरको एवं अन्य रसायनों को मिलाकर परिवर्तित किया जा सकता है तथा कुछ हद तक जल निकास में सुधार करके एवं भू परिष्करण क्रियाओं द्वारा भी मृदा में रासायनिक संगठन को बदला जा सकता है ।

इसी प्रकार भूमि के भौतिक संगठन को भी भूमि में जो आज पदार्थों को मिलाकर जल निकास एवं भू परिष्करण क्रियाओं में सुधार तथा चुना एवं अन्य पदार्थों को भूमि में दानेदार बनाते हैं । अच्छा खान अच्छा बीज एवं अच्छी देखभाल से उत्पादन में अपेक्षित सफलता तब तक नहीं मिल सकती जब तक मिट्टी का गठन अच्छा ना हो और उसको अच्छी तरह तैयार ना किया गया हो ।

फल, फूल एवं सब्जियों की खेती के लिए उपयुक्त मृदा 

उपजाऊ भुरभुरी अच्छे जल निकास वाली एवं अधिक जीवाश्म पदार्थ वाली होनी चाहिए फलों की खेती के लिए एक विशेष प्रकार की भूमि उतना महत्व नहीं रखती उचित जल निकास अधिक दिवस पदार्थ के साथ-साथ अधिक जल धारण क्षमता रखने वाली भूमि रखती है ।

कठोर, क्षार युक्त मृदा, अधिक बुलुई तथा मिट्टी की सतह के नीचे कठोर तह रखने वाली भूमि फल उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं होती फल वृक्षों के लिए उपयुक्त भूमि तैयार करना अधिक कठिन कार्य है लेकिन यदि भूमि के भौतिक गुण ठीक हो और उपजाऊ कम भी हो तो उसमें उर्वरक, जीवाश्म पदार्थ आदि मिलाकर भूमि को फल उत्पादन के लिए अच्छा बनाया जा सकता है ।

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बागवानी के लिए उचित मृदा के प्रकार 

मृदा के प्रकार - सामान्य रूप से बागवानी के लिए दो प्रकार की भूमि उपयुक्त होती है -

  • मक एवं पीट मृदा ( Muck and Peat Soil )
  • खनिज मृदा ( Mineral Soil )


1. मक एवं पीट मृदा ( Muck and Peat Soil )

यह भूमि अधिक जीवांश पदार्थ से युक्त होती है इसमें अधिकतर पौधे एवं उनके भागो एवं अवशेषों के सड़ने आदि से ही जीवाश्म पदार्थ की वृद्धि होती है ।

अतः कुछ वैज्ञानिक मक एवं पीट दोनों शब्द एक ही प्रकार की भूमि के लिए प्रयोग करते हैं दोनों में कोई अंतर नहीं मानते लेकिन कुछ वैज्ञानिक इन दोनों प्रकार की भूमि में अंतर मानते हैं उनके अंतर मांगने का अधिकार निवास में पदार्थ की मात्रा है ।

इस समूह के वैज्ञानिकों के अनुसार यदि भूमि में जीवाश पदार्थ की मात्रा 20 से 65% तक है तो वह मक मृदा (muck soil) कहलाती है जबकि जब जीवाश्म पदार्थ की मात्रा 65% से अधिक होती है तो वह पीट मृदा (peat soil) कहलाती है ।

इस प्रकार की भूमियों की जल धारण क्षमता अधिक होती है लेकिन इनमें पौधों के तत्वों की मात्रा कम पाई जाती है यह भूमि विशेष रूप से फल वृक्षों के लिए उपयुक्त होती है ।

मक एवं पीट मृदा की विशेषताएं -

  • इस प्रकार की भूमि में जीवाश्म पदार्थ की मात्रा अधिक होती है ।
  • इस प्रकार की भूमि का रंग भूरे से काला होता है वनस्पति पदार्थों के अधिक सड़ जाने से रंग गहरा हो जाता है ।
  • इस प्रकार की मृदा में जल धारण क्षमता अधिक होती है यद्यपि इन में प्राप्त जल अधिक होता है ।
  • इस प्रकार की भूमि में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है ।
  • इस प्रकार की मृदा में खनिज तत्वों की कमी पाई जाती है विशेषकर पोटाश तथा कभी-कभी फास्फोरस की भी कमी होती है साथ ही गौण पोषक तत्वों की भी कमी पाई जाती है ।

2. खनिज मृदा ( Mineral Soil )

वह मृदा जिसमें जीवाश्म पदार्थ की मात्रा 20% पाई जाती है खनिज मृदा (mineral soil) कहलाती है ।

यह मृदा विभिन्न प्रकार से कणों से युक्त होती है जिनको यदि आकार के दृष्टिकोण से घटते क्रम में रखा जाए तो इन्हें बालू, सिल्ट तथा क्ले के नाम से पुकारा जाता है ।

यह तीनों मृदा के गठन में मोटा पन पैदा करते हैं मर्दा के गठन का मोटापा फलों की खेती के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि इस प्रकार की भूमि में दो कोणों के बीच रंध्र स्थान अधिक होता है और इन्हीं स्थानों में पानी हवा, जीवाश्म पदार्थ भरा होता है अथवा रंध्रता अधिक होती है जो कि फलों की खेती के लिए वांछनीय गुण हैं ।

वैसे तो हर प्रकार की मृदा में फल वृक्षों का उत्पादन किया जा सकता है साथ ही यह भी कहना बहुत कठिन है कि अमुक किस्म की मृदा पर फल वृक्षों के उत्पादन के लिए सबसे अच्छी है क्योंकि हर प्रकार की भूमि में अपनी अलग विशेषताएं होती है ।

उपरोक्त बातों को देखते हुए सामान्य रूप से खनिज भूमि को तीन समूहों में बांटा गया है -

  • बलुई मृदा ( Sandy Soil ) - इसके कण बड़े एवं अलग-अलग होते हैं इसीलिए इस मृदा में नमी रोकने की क्षमता नहीं होती क्योंकि इसमें पानी का रिसाव बहुत तेजी से होता है और इसी पानी के रिसाव के साथ ही तत्व भी बह जाते हैं अतः इस भूमि की उर्वरा शक्ति भी बहुत कम होती है इस प्रकार की भूमि में नमी तथा तत्वों को रोकने की क्षमता एवं उर्वरक शक्ति को बाहर से जीवाश्म पदार्थ खाद्य रूप में फसल अवशेषों को मिलाकर बढ़ाया जा सकता है इस प्रकार की मृदा फल उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं होती है ।
  • मटियार मृदा ( Clay Soil ) - इस मृदा में 40% क्ले, 30% सिल्ट तथा 30% बालू पाया जाता है भीगने पर इसमें भारी चिकनाहट होती है और सूखने पर यह कठोर हो जाती है ओर सुकड़ने के कारण इसमें दरारे पड़ जाती है । अतः इसे भारी मृदा भी कहा जाता हैं इस मृदा में कणों के बीच रंध्र स्थान बहुत कम होता है जिसमें की हवा एवं पानी का रिसाव बहुत ही मंद गति से होता है और जब यह स्थान पानी से भर जाता है तो हवा का प्रवेश रुक जाता है जबकि हवा जोड़ों की वृद्धि के लिए आवश्यक होती है अतः यह फल वृक्षों के लिए उपयुक्त नहीं है ।
  • दोमट मृदा ( Loam Soil ) — उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि न तो बलुई भूमि ही पूर्णरूप से फल वृक्षों के लिये उपयुक्त होती है और न मटियार भूमि ही। इस प्रकार फल वृक्षों के लिये बलुई, मटियार (चिकनी), तथा सिल्ट युक्त भूमि ही उपयुक्त होती है और वह है दोमट भूमि क्योंकि इसमें (Sand, Slit and Clay) का मिश्रण उपयुक्त मात्रा में (क्ले 20% से कम, 30-50% सिल्ट तथा 30 से 50% बालू होता है) होता है । इसमें सिल्ट, क्ले तथा बलुई तीनों ही प्रकार के गुण पाये जाते हैं। लेकिन उनकी बुराइयों से यह सर्वथा मुक्त रहती है। इसमें जीवांश पदार्थ भी पर्याप्त मात्रा में रहता है । चिकनी मिट्टी का पर्याप्त अंश होने के कारण इसमें अधिक समय तक जल धारण करने की क्षमता भी होती है। तथा साथ ही बालू का अंश होने की वजह से इसमें भुराभुरापन (Friability) भी होता है। अतः इसमें वायु का संचार भी ठीक रहता है। इस प्रकार यह भूमि फलों की खेती के लिये आदर्श एवं सबसे अच्छी भूमि मानी जाती है ।

बरटेली, सलूसर एवं एन्डरसन 1977 (Bartelli, Slusher and Anderson 1977) का कथन है, कि बलुई एवं कले भूमि में जीवांश पदार्थ (Organic Matter) एवं विभिन्न भूमि सुधारक (Soil Amendmends) वस्तुओं को डालकर फलों की खेती के योग्य बनाया जा सकता है । वह भूमि जिससे 45 प्रतिशत खनिज (Mineral), 5 प्रतिशत जीवांश पदार्थ 25 प्रतिशत हवा एवं 25 प्रतिशत पानी हो, फलों की खेती के लिये सबसे अच्छी मानी जाती है। फलों की खेती भूमि के पी एच (pH) के ऊपर भी बहुत कुछ निर्भर करती है । यह pH भूमि गुणों में परिवर्तन के साथ-साथ बदलता रहता है । जैसे कुछ फलों के लिये अम्लीय माध्यम भूमि अधिक उपयुक्त होती है । फलों की खेती 5 से 8 पी-एच के बीच तक की जा सकती है । लेकिन अधिकतर 6 से 7.5 के बीच ही की जाती है ।

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बागवानी फसलों के लिए उचित जलवायु क्षेत्र | Climate zone for horticulture crops in hindi

बागवानी फसलों पर जलवायु का बहुत अधिक गहरा प्रभाव पड़ता है, इसलिए बागवानी फसलों के लिए उचित जलवायु क्षेत्र की आवश्यकता होती है ।

जलवायु ( Climate ) - मिट्टी की अपेक्षाकृत फलोत्पादन पर जलवायु का अधिक प्रभाव पड़ता है जिसके आधार पर ही इनके क्षेत्र सीमित हैं । किसी स्थान की पूरे वर्ष की वर्षा, रोशनी, आर्द्रता, तापक्रम तथा हवा के दबाव के औसत को उस स्थान की जलवायु कहा जाता है । 

यह पूर्णतः स्पष्ट है कि इन सभी साधनों का प्रभाव सभी स्थानों पर एकसमान नहीं होता । अगर कहीं पर तापक्रम अधिक है तो कहीं पर वर्षा एवं आर्द्रता अधिक है। मान लीजिये कि किसी स्थान पर वर्षा अधिक है । तो वहाँ पर केला सफलतापूर्वक उत्पन्न किया जा सकता है लेकिन अंगूर नहीं । आम उत्पन्न करने वाले प्रदेशों में जनवरी से मार्च तक की वर्षा एवं तेज हवायें हानिकारक सिद्ध होती हैं । 

अतः यह स्पष्ट है कि विभिन्न प्रकार के फल विभिन्न प्रकार की जलवायु चाहते हैं और उनको उसी स्थान पर सफलतापूर्वक पैदा किया जा सकता है जहाँ पर कि उनके लिये उचित जलवायु उपलब्ध है ।

जलवायु के आधार पर फल वाले वृक्षों को मुख्य निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता है—

  • शीतोष्ण प्रदेशीय फल ( Temperate fruits )
  • उपोष्ण देशीय फल ( Sub-tropical fruits )
  • उष्ण प्रदेशीय फल ( Tropical fruits )


1. शीतोष्ण प्रदेशीय फल ( Temperate fruits )

भारतवर्ष में इस प्रकार के फल उत्पन्न करने वाले मुख्य क्षेत्र कश्मीर, हिमाचल प्रदेश में कुल्लू काँगड़ा की घाटियाँ, कोटगढ़ तथा नाहन और कुमाऊँ की पहाड़ियाँ हैं। यद्यपि ये क्षेत्र शीतोष्णीय फलों को अधिक मात्रा में पैदा करने के लिये प्रसिद्ध हैं परन्तु फिर भी भारत के मध्य तथा दक्षिणी भाग में कुछ अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्र; जैसे- नीलगिरि तथा पालनी की पहाड़ियाँ ऐसी हैं जो कि कुछ न कुछ सीमा तक इन फलों को पैदा करती हैं ।

इस श्रेणी के फल ऐसे क्षेत्रों में सफलतापूर्वक पैदा किये जाते हैं जहाँ पर शीतकाल में तापक्रम जमाव बिन्दु के नीचे चला जाता है। इस समय ये फल वाले पौधे अपनी पत्तियाँ गिराकर सुषुप्तावस्था में चले जाते हैं। सुषुप्तावस्था को समाप्त करने हेतु कम तापक्रम वाले एक निश्चित समय की आवश्यकता होती है।

इन फलों को आगे फिर से उत्पन्न होने वाली ऊँचाई के हिसाब से वर्गीकृत किया जा सकता है -

  • समुद्र तल से अधिकं ऊँचाई (1500-2400 मी०) वाले क्षेत्र में उत्पन्न किये जाने वाले फल; जैसे - सेब, नाशपाती, अखरोट, बादाम तथा चैरी इत्यादि ।
  • समुद्र तल से 1200 मी० की ऊँचाई पर पैदा होने वाले फल जैसे- आडू, आलूबुखारा, खुबानी तथा स्ट्रोबैरी इत्यादि ।

आडू तथा आलूबुखारा की कुछ जातियाँ ऐसी होती हैं, जो कि अपेक्षाकृत अधिक तापक्रम चाहती हैं तथा इनको हिमालय की निचली पहाड़ियों पर सफलतापूर्वक पैदा किया जा सकता है । इसी प्रकार से स्ट्रोबैरी को भी उत्तर प्रदेश के कुछ अधिक तापक्रम वाले तराई जिलों में सफलतापूर्वक उत्पन्न किया जा सकता है । 

यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना उपयुक्त रहेगा कि किसी भी क्षेत्र में सफलतम फलोत्पादन के लिये केवल ऊँचाई का ही उत्तरदायित्व नहीं होता, बल्कि इसके लिये जलवायु के अन्य कारक भी उत्तरदायी होते हैं; जैसे-ओला, पाला, वर्षा इत्यादि । उदाहरण के तौर पर शिमला और सोलन जिनकी ऊँचाई क्रमशः समुद्र तल से 2100 मी० तथा 1380 मी० हैं, ओलों की वृष्टि के कारण फलोत्पादन के लिये उपयुक्त नहीं हैं, जबकि हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी जिसमें ओलों की वृष्टि नहीं होती है, शीतोष्ण फलों को उत्पन्न करने हेतु अच्छा क्षेत्र समझा जाता है ।


2. उपोष्णदेशीय फल ( Sub-Tropical Fruits )

इस श्रेणी के फलों को उत्पन्न करने वाले प्रमुख क्षेत्र पंजाब तथा उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग, बिहार, मध्य प्रदेश तथा पश्चिमी बंगाल के उत्तरी जिले, राजस्थान तथा असम के क्षेत्र हैं । 

यह क्षेत्र फिर से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

  • उत्तर-पश्चिमी उपोष्णीय प्रदेश (North-Western Sub-tropical Region)
  • उत्तर-पूर्वी उपोष्णीय प्रदेश (North-Eastern Sub-tropical Region) 

यह क्षेत्र वास्तविक उष्ण (Tropical) तथा शीतोष्ण (Temperate) क्षेत्रों के मध्य में स्थित है। इस उपोष्णीय या मध्यवर्ती क्षेत्र में तापक्रम कभी-कभी ही जमाव बिन्दु के नीचे उतरता है वह भी 25° फाo के नीचे कभी नहीं जाता। वे फल उन मैदानी भागों में अधिक उगाये जाते हैं जहाँ पर कि जलवायु गर्म अपेक्षाकृत शुष्क तथा शीतकाल में कम सर्दी पड़ती है। इन फलों की खेती उप-पर्वतीय क्षेत्रों, जो कि पर्वतीय भाग के बिल्कुल समीप है, में की जाती है ।

उपोष्णीय प्रदेश में उत्पन्न किये जाने वाले फल ऊष्ण प्रदेश में भी पैदा किये जा सकते हैं। फलों को जाति के आधार पर वर्गीकरण करना उचित नहीं है लेकिन इनको न्यूनतम तापक्रम को सहन करने की शक्ति के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। 

हालांकि नारंगी, नींबू, महानींबू, लेमन, लीची, फालसा, अंजीर, खजूर, अंगूर, अमरूद, अनार इत्यादि उपोष्ण प्रदेशीय फल हैं परन्तु फिर भी इनको उष्ण जलवायु में उत्पन्न किया जा सकता है। इसी प्रकार से उष्ण प्रदेश के कुछ फल; जैसे- आम, केला तथा कटहल इत्यादि को व्यवसायिक रूप से उपोष्णीय प्रदेश में पैदा किया जा सकता है। शीतोष्ण जलवायु में उत्पन्न होने वाले आडू तथा नाशपाती की कुछ जातियाँ भी उपोष्णीय प्रदेश में सफलतापूर्वक पैदा की जाती हैं ।


3. उष्ण प्रदेशीय फल ( Tropical Fruits )

इस प्रकार के फल पश्चिमी बंगाल तथा मध्य प्रदेश में दक्षिणी जिलों, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल में सफलतापूर्वक पैदा किये जाते हैं। 

यह क्षेत्र फिर से निम्न प्रकार विभक्त किया जा सकता है—

  • उष्ण प्रदेश का मध्य भाग (Central tropical region)
  • उष्ण प्रदेश का दक्षिणी भाग (Southern tropical region)
  • उष्ण प्रदेश का समुद्रतटीय भाग (Coastal tropical humid region)। 

ऊष्ण प्रदेशीय फलों के लिये ग्रीष्मकाल में आर्द्रतापूर्ण एवं गर्म जलवायु तथा शीतकाल में कम ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में सिंचाई एवं वर्षा की सुविधा उत्पन्न होने पर आम, केला, काजू, चीकू, अनन्नास, पपीता एवं कटहल इत्यादि फलों को सफलतापूर्वक उत्पन्न किया जा सकता है। इस क्षेत्र में जहाँ पर वर्षा का समान वितरण एवं पहाड़ियों का घिराव है वहाँ पर अंगूर व्यवसायिक रूप से उत्पन्न किया जाता है। इसका मुख्य उदाहरण तमिलनाडु राज्य के माधुराई जिले की पालनी पहाड़ियों का निचला भाग कहा जा सकता है ।

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बागवानी फसलों को प्रभावित करने वाले जलवायुवीय कारक 

बागवानी फसलों को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक -

  • तापमान ( Temperature )
  • वर्षा ( Rain fall )
  • वायुमंडल की आद्रता ( Atmospheric Humidity )
  • हवा ओर प्रकाश ( Wind and Light )
  • पाला और ओला ( Frost and Hail )
  • सूखा और जलमग्नता ( Drought and Floods )


1. तापमान ( Temperature ) -

किसी क्षेत्र में फलों के सफलतम कृषि के लिए तापमान विशेष महत्त्व रखता है। प्रत्येक फल वृक्ष को अपनी वृद्धि तथा फलत के लिये विशेष तापक्रम की आवश्यकता होती है। उससे ऊपर या नीचे वह ठीक प्रकार नहीं पनप सकता और न अच्छी पैदावार ही दे सकता है, उदाहरण के तौर पर सेब, नाशपाती, स्ट्रोबेरी इत्यादि फल वृक्ष शीतोष्ण जलवायु में सफलतापूर्वक उगाये जा सकते हैं। इन फल वृक्षों को इतने निम्न तापक्रम की आवश्यकता होती है कि ये पत्तियाँ गिराकर सुषुप्तावस्था में कुछ समय के लिये जा सकें । इसके विपरीत पतझड़ न करने वाले फल वृक्ष; जैसे—आम, केला, इत्यादि को पाले तथा बर्फ से रहित ऐसे क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उत्पन्न किया जा सकता है जहाँ तापक्रम अधिक ऊँचा रहता हो । तापक्रम कम हो जाने से इन फल वृक्षों में हानि होती है। ऐसा देखा गया है तापक्रम कम होने से इनमें फूल देर में आने शुरू होते हैं, कीटों के शिथिल पड़ जाने से परागण नहीं हो पाता तथा अधिकतर फल-फूल गिर जाते हैं, जबकि अधिक तापक्रम से फलों में चीनी की मात्रा बढ़ जाती है तथा वे अधिक मीठे हो जाते हैं ।

2. वर्षा (Rain fall) — 

किसी स्थान के सफल फलोत्पादन के लिये वर्षा की मात्रा तथा उसका वितरण विशेष महत्व रखता है। जहाँ पर पानी थोड़े-थोड़े समय के अन्तर से अधिक मात्रा में बरसता है, उन स्थानों पर फल सफलतापूर्वक नहीं उगाये जा सकते हैं। लगातार अधिक वर्षा के कारण फल-उद्यानों में जलानुवेधन (Water-logging) हो जाता है तथा फूल और फल पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। फूल खिलने के समय यदि वर्षा अधिक मात्रा में हो जाती है। वो फूलों के विभिन्न भागों को क्षति पहुँचती है, परागकण वह जाते हैं तथा परागण की क्रिया ठीक प्रकार से न होने से फसल मारी जाती है। ऐसी परिस्थिति में पौधों पर बहुत-से रोगों के लगने का भी भय हो जाता है। इसके विपरीत, यदि वर्षा कम व अनियमित होती है तो फल-वृक्षों में सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है। लगभग 100 सेमी वार्षिक वृष्टि सफल फल उत्पादन के लिये उचित समझी जाती है जिसका वितरण पूरे वर्ष ठीक प्रकार से रहे ।

3. वायुमण्डलीय आर्द्रता (Atmospheric Humidity) - 

फल उत्पन्न करने के लिये जितनी नमी की आवश्यकता होती है वह काफी मात्रा तक वायुमण्डल की दशा के ऊपर निर्भर करती है। यदि वायुमण्डल सूखा है, हवा तेज व गर्म चलती है तो पौधों में उत्स्वेदन (Transpiration) से पानी का अधिक हास होगा। यदि हवा गर्म हो लेकिन उसमें आर्द्रता हो तो उसमें पानी का हास कम हो जाता है। अधिक आर्द्रता एवं अधिक तापक्रम में बहुत से फल वाले वृक्षों; जैसे—केला तथा अनन्नास इत्यादि की वृद्धि अच्छी होती है । बहुत-से फलों के लिये वातावरण की अधिक आईना हानिकारक सिद्ध होती है, ऐसी परिस्थिति में फलों के गुण खराब हो जाते है उसमें अच्छा रंग नहीं आ पाता, फलतः स्वाद कम मीठा हो जाता है तथा अधिकतर फल रोगप्रसित हो जाते हैं जैसे कि जाड़ों के अमरूद की तुलना में बरसातीय अमरूद की फसल खराब किस्म की पैदा होती है । इस प्रकार से वायुमण्डलीय आर्द्रता का प्रभाव विभिन्न फलों पर अलग-अलग रूप से पड़ता है । इसलिये फल-विशेष की आवश्यकतानुसार इसका होना आवश्यक होता है ।

4. हवा और प्रकाश (Wind and Light) – 

ऐसे स्थान जहाँ पर हवा तेज रहती है। या तूफान आया करते हैं फल सफलतापूर्वक उत्पन्न नहीं किये जा सकते। ऐसी स्थिति में वृक्षों के फूल तथा फल जमीन पर गिर जाते हैं और पौधों की बहुत-सी शाखायें टूटकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसी हालत गर्मियों में देखने को मिलती है जिससे आम की अधिकतर फसल बेकार हो जाती है। अतः वायु की तीव्र गति फल-उत्पादन के लिये निःसन्देह हानिप्रद है। गर्म हवाओं के कारण भी बहुत-से फल फटकर बेकार हो जाते हैं तथा जमीन पर गिर जाते हैं। फलों के उत्पादन में प्रकाश भी विशेष महत्त्व रखता है, उष्ण तथा उपोष्ण क्षेत्रों में प्रकाश पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहता है लेकिन शीतोष्ण क्षेत्र में प्रकाश की पर्याप्त मात्रा न मिलने से फलों पर सफेद व काले धब्बे पड़ जाते हैं जिससे उनका बाजार मूल्य कम हो जाता है । यहाँ पर फल वाले वृक्षों को इस प्रकार से काटा-छाँटा जाता है कि प्रकाश उनको अधिक मात्रा में मिल सके ।

5. पाला व ओला (Frost and Hail) - 

पाला व ओलावृष्टि से फल-वृक्षों को काफी नुकसान होता है । पौधों की छोटी अवस्था में पाला पड़ने से पौधे नष्ट हो जाते हैं । इसलिये आम, पपीता तथा लीची इत्यादि को ऐसे क्षेत्रों में उत्पन्न नहीं किया जा सकता जहाँ पर पाला अधिक पड़ता है । उष्ण तथा उपोष्ण प्रदेशों में भी इनका पाले से बचाव करना आवश्यक हो जाता है। ओला पड़ने से फलत खराब हो जाती है । उत्तरी भारत में ओलों की वृष्टि से फल-उद्यान को काफी क्षति पहुँचती है ।

6. सूखा तथा जलमग्नता (Drought and Floods) - 

फल वृक्षों की सफलतम वृद्धि एवं फलत में पानी का अधिक महत्त्व है। पौधों को पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने से उनकी वानस्पतिक वृद्धि रुक जाती है जिसका प्रभाव फल उत्पादन पर पड़ता है। अधिक सूखा मौसम होने से फूल कम पैदा होते हैं, अधिकांशतः जमीन पर गिर जाते हैं। पानी के अभाव में फल भी गिरने लगते हैं तथा उनमें फटन होने लगती है। अतः पानी के अभाव में फल वृक्षों को सफलतापूर्वक पैदा नहीं किया जा सकता।

इसके विपरीत जहाँ बाढ़े अधिक आती हैं, फल वृक्ष नष्ट हो जाते हैं। जलमग्न अवस्था होने पर पौधों की जड़ें सड़ जाती हैं तथा उनकी वृद्धि रुक जाती है और वे मर जाते हैं । इस प्रकार से फल वृक्षों की वृद्धि तथा फलोत्पादन के लिये अधिक सूखा मौसम तथा बायें हानिप्रद होती हैं ।

उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट है कि भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु पाई जाती है, जिसमें कि लगभग प्रत्येक फल सफलतापूर्वक पैदा किया जा सकता है। दक्षिण भारत में जलवायु में काफी भिन्नता मिलती है जिससे वहाँ पर लगभग सभी फल उत्पन्न होते हैं । आम तथा अंगूर की तो वर्ष में दो-दो फसलें मिल जाती है । किसी विशेष-क्षेत्र में पैदा होने वाली फलो की जातियाँ जलवायु में भिन्नता होने के कारण दूसरे क्षेत्र में नहीं पनप पाती हैं । अतः फल वृक्षों व उनकी विभिन्न किस्मों को उसी स्थान पर पैदा करना चाहिये, जहाँ पर उनके लिये उपयुक्त जलवायु उपलब्ध हो ।

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